मणिपुर में सुरक्षा बलों की भारी संख्या के बावजूद स्थिति को सामान्य बनाना मुश्किल हो रहा है। मणिपुरी समाज बुरी तरह बंटा दिख रहा है। वहां के दो प्रमुख समुदाय, मैतेई और कुकी एक-दूसरे को जैसे देखने को तैयार नहीं। स्थिति यह है कि मैतेई बहुल इलाकों में रहने वाले कुकी घर-बार छोड़ कर चले गए हैं। यही हाल कुकी बहुल इलाकों में बसे मैतेई लोगों का है। ऐसे में यह सवाल तो है ही कि करीब-करीब गृहयुद्ध में बदल चुकी मणिपुर की हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है? शनिवार को सर्वदलीय बैठक में विपक्ष की एक स्वर से उठी मुख्यमंत्री बदलने की मांग के पीछे भी शायद इसी सवाल की भूमिका है। लेकिन इससे भी गंभीर यह आशंका है कि कहीं यह हिंसा समस्त पूर्वोत्तर को अशांति के एक नए चरण में न धकेल दे। इस आशंका के पीछे कई ठोस कारक हैं, लेकिन पहले मणिपुर की इस हिंसा की पृष्ठभूमि को समझते हैं। वैसे राज्य में हिंसा कोई नई बात नहीं है। यहां समुदायों के बीच संघर्ष का इतिहास पुराना है। 1949 में मणिपुर राज्य के भारत में विलय के साथ ही अलगाववादी प्रवृत्तियां उभरने लगी थीं। सत्तर के दशक में तो हालात इतने बिगड़ गए कि केंद्र सरकार को 1980 आते-आते आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (अफ्सपा) लागू करना पड़ा। उग्रवादी गतिविधियों के लिए पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों की तरह मणिपुर की भौगोलिक परिस्थितियां भी काफी मददगार रही हैं। जंगल तथा पहाडिय़ों के अलावा पड़ोसी म्यांमार के साथ एक खुली सीमा है। दोनों ओर एक ही जनजातियां हैं, जो आपस में सामाजिक-आर्थिक रूप से सदियों से बंधी हैं। संसाधनों की कमी और आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ चलने में असमर्थता के कारण यहां के कुछ समुदाय नशे की खेती और कारोबार में लग गए हैं। नशा, हथियार और उग्रवाद ने मिलकर एक ऐसा खतरनाक मिश्रण तैयार कर दिया है जिससे निपटना सरकार के लिए कठिन हो गया है। लेकिन नशे का कारोबार और उग्रवाद उस गहरी बीमारी के लक्षण भर हैं जिससे पूर्वोत्तर के राज्य ग्रस्त हैं। असल में, यह कबीलाई अस्मिता, संस्कृति और पर्यावरण-संसाधन की रक्षा से जुड़ा सवाल है। स्थानीय कबीलों ने इनकी रक्षा के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जमकर लोहा लिया था। दुर्भाग्य से, भारत सरकार ने उपनिवेशवादी नीतियों को पलटने में किसी कल्पनाशीलता का सहारा नहीं लिया और पुराने तरीके ही अमल में लाए। परंपरागत पंचायतें जरूर बहाल हुईं, जनजातीय परिषदों के जरिए उन्हें संसाधनों पर अधिकार और स्वायत्तता भी मिली, लेकिन भारतीय राष्ट्र में इन समूहों को बराबर का भागीदार बनाने का काम अधूरा रह गया। तीन मई की हिंसा हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद भड़की कि राज्य सरकार मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की अनुशंसा करे। कुकी सहित अन्य जनजातियों की ओर से विरोध शुरू हुआ। लेकिन यह जल्दी ही सांप्रदायिक दंगे में बदल गया। हिंसा में 200 से ज्यादा चर्च और 17 मंदिर जलाए गए हैं। इनमें मैतेई ईसाइयों के चर्च भी शामिल हैं। यह समझना जरूरी है कि अब तक उग्रवाद का मुख्य निशाना सुरक्षा बल ही थे।