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फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की चर्चा

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प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने केंद्र की भाजपा सरकार पर हमला बोलते हुए यूपीए के 9 साल और मोदी सरकार के 9 साल के बीच न्यूनतम समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी की तुलना की। उन्होंने अपने ट्वीट में बताया कि यूपीए के 9 साल की सरकार में एमएसपी 134 प्रतिशत बढ़ा। जबकि मोदी सरकार के 9 साल में यह बढ़ोतरी मात्र 55 फीसदी है। वैसे तो आर्थिक विषयों को राजनीति से अलग रखा जाना चाहिए। लेकिन पूरी दुनिया में आर्थिक विचारधारा के नाम पर ही राजनीति चल रही है। कई बार ऐसे आर्थिक विषयों पर भी राजनेता अपनी पीठ थपथपाते है जिनसे बड़ी संख्या में गरीबों का कोई भला नहीं होता लेकिन देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है। यह बात सही है कि मनमोहन सिंह सरकार के समय फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। अभी प्रदेश सरकार किसानों के धान को 2600 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीद रही है। इसका मतलब है केंद्र सरकार के समर्थन मूल्य से 600 रुपए अधिक का मूल्य किसानों को मिल रहा है। लेकिन डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने जो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया क्या उससे किसानों की समस्या समाप्त हो गई? अगर ऐसा होता तो उसी साल में देश के हजारों किसान आत्महत्या क्यों करते? दरअसल हमारे देश में सभी किसानों को एक परिभाषा से आंकलन करते है जबकि देश हो या छत्तीसगढ़ 60 फीसदी किसान ऐसे है जिनका औसत खेत का रकबा एकड़ के करीब है। इस एकड़ के रकबे में फसल उत्पादन करने की अपनी सीमा है। ऐसे में समर्थन मूल्य कितना भी बढ़ा लें छोटे किसानों की गरीबी दूर नहीं होने वाली। न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर अब तक की सरकारों ने जो किया है उससे बड़े किसानों को ही फायदा मिला है। छत्तीसगढ़ में भी राजीव गांधी न्याय योजना के तहत 9 हजार रुपए प्रति एकड़ सरकार दे रही है उससे 20-30 एकड़ से अधिक के किसानों को तो एक मुश्त फायदा हो रहा है। एक-दो एकड़ वाले किसान को इसमें कुछ मिलता नहीं और जो मिलता है वह फसल का मूल्य बढऩे के फलस्वरुप कृषि लागत में बढ़ोतरी होती है उसमें बराबर हो जाता है। अर्थशास्त्र का नियम है जब आप एक आवश्यक वस्तु का मूल्य बढ़ाएंगे तो अन्य वस्तुओं का मूल्य भी बढ़ जाता है। ऐसा होने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी का लाभ महंगाई के कारण छोटे किसानों को नहीं मिलता। ऐसा ही डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के समय हुआ। समर्थन मूल्य तो बढ़ा लेकिन बीज, खाद, कीटनाशक सहित साबुन, तेल, दाल, शक्कर की कीमत बढऩे से किसानों के पास कुछ बचा नहीं। राजनीतिक नारा देना अलग बात है और किसानों का कल्याण करना इससे अलग है।