छत्तीसगढ़ की निर्वाचित पंचम विधानसभा का सोलहवां सत्र, बजट सत्र चल रहा है। लोकतंत्र में जितनी जिम्मेदारी सरकार की है, उतनी ही विपक्ष की भी है। लेकिन विधानसभा में प्रश्न पूछने का अधिकार सत्ता और विपक्ष दोनों के विधायकों का होता है। वैसे तो कहा जाता है कि जैसे-जैसे कोई संस्था पुरानी होती जाती है। उसकी कार्यप्रणाली बेहतर होती है और परिपक्वता आती है। लेकिन संसदीय संस्थाओं के साथ समस्या यह है कि हर पांच साल में चुनाव होता है और जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि विधानसभा में आते हैं। इन निर्वाचितों में कुछ अनुभवी पुराने भी होते हैं, तो कुछ नए होते हैं। इसलिए विधानसभा का अनुभव उसके निर्वाचित प्रतिनिधियों की वरिष्ठता और गंभीरता से तय होती है। दूसरी ओर सरकार में जो मंत्री नियुक्त होते हैं, वे तो ज्यादातर अनुभवी ही होते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के पांचवें विधानसभा की बात करें तो प्रश्नकाल के दौरान सदन के सदस्यों के प्रश्न की बात हो या मंत्रियों के उत्तर की बात हो। गुणवत्ता कम होती दिखाई देती है। एक बात तो तय है कि कांग्रेस पार्टी के निर्वाचित 71 विधायकों में 75 प्रतिशत एकदम नए प्रतिनिधि जिनका बहुत अधिक संसदीय अनुभव नहीं है। दूसरी ओर विपक्ष के सदस्य भले ही संख्या में कम हो लेकिन ज्यादातर बेहद अनुभवी है। उनके अनुभव के सामने सरकार के मंत्रियों का अनुभव बहुत कम है। लेकिन मंत्रियों को प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए प्रश्नों की जानकारी देने की जिम्मेदारी अधिकारियों की होती है। पिछले कई सत्रों से लगातार विधायकों के प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देने में मंत्री नाकाम रहे हैं। इस बात को लेकर विधानसभा अध्यक्ष हिदायत भी दे चुके हैं कि मंत्री तैयारी के साथ आया करें। दूसरी ओर गंभीर विषयों से जुड़े सवाल जिनका जनता से सीधा से सरोकार है, प्रदेश के हित से जुड़ा है ऐसे प्रश्न पर भी मंत्री गंभीर नजर नहीं आते। आदिम जाति कल्याण मंत्री प्रेमसाय सिंह टेकाम एक प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए और इसके लिए आधे घंटे की चर्चा निश्चित की गई , इसी प्रकार कुपेबेड़ा में किडनी खराब होने की घटना को लेकर पूछे गए सवाल का जवाब नहीं आने पर विपक्ष के विधायकों ने बहिर्गमन किया। विधानसभा में जनता के विषय पर चर्चा हो प्रश्नोत्तरी के माध्यम से तथ्य लोगों के सामने आए और इसके जरिए व्यवस्था में सुधार हो। यही संसदीय प्रणाली का मुख्य लक्ष्य होता है।