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भानुप्रतापपुर उपचुनाव परिणाम के बाद

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प्रदेश में विगत 4 वर्षों में 5 उपचुनाव संपन्न हुए है। दुर्भाग्य का विषय है कि इनमें से 4 उपचुनाव निर्वाचित विधायक के असामयिक निधन होने के कारण कराए गए, जिनमें दंतेवाड़ा, मरवाही, खैैरागढ़ और हाल में संपन्न भानुप्रतापपुर सीट शामिल है। सामान्यतौर पर माना जाता है कि किसी निर्वाचित प्रतिनिधि के निधन के बाद जो उपचुनाव होता है उसमें ज्यादातर परिवार के सदस्य को ही उम्मीदवार पार्टी बनाती है और इस कारण सहानुभूति का वोट उसे मिलता है। प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। भानुप्रतापपुर को छोड़ दिया जाए तो शेष तीनों विधानसभाओं में गैर कांग्रेसी विधायक के निधन होने के कारण चुनाव कराया गया। दंतेवाड़ा में भारतीय जनता पार्टी ने स्व. भीमा मंडावी की पत्नी को उम्मीदवार बनाया था। लेकिन वे कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के हाथों पराजित हुईं। इसके बाद स्व. अजीत जोगी एवं स्व. देवव्रत सिंह दोनों जोगी जनता कांग्रेस से निर्वाचित विधायक थे लेकिन इनके निधन के बाद जो उपचुनाव हुए उनमें इन दोनों विधायकों के परिजन नहीं लड़े। इन दोनों सीटों पर कांग्रेस पार्टी को जीत मिली। अभी भानुप्रतापपुर उपचुनाव में कांग्रेस की उम्मीदवार स्व. मनोज मंडावी की धर्मपत्नी सावित्री मंडावी थी और यहां भी कांग्रेस को जीत मिली। अब चारों विधानसभा क्षेत्र में से केवल खैरागढ़ को छोड़ दिया जाए तो 3 अनुसूचित जनजाति बाहुल्य एवं आरक्षित क्षेत्र थे। इन तथ्यों को संदर्भ में लेते हुए अगर भानुप्रतापपुर उपचुनाव के परिणाम की समीक्षा करें तो प्रथम दृष्टया यह लगता है कि श्रीमती सावित्री मंडावी को सहानुभूति लहर के कारण 21 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीत मिली। 2018 के चुनाव में मोहन मंडावी 72 हजार 520 वोट प्राप्त किए। उपचुनाव में सावित्री मंडावी को 65 हजार 479 मत मिले है। इस हिसाब से उपचुनाव में कांग्रेस पार्टी की उम्मीदवार को 7 हजार वोट कम मिले है। 2018 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी देवलाल दुग्गा को 45 हजार 827 मत मिले थे और इस उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी को 44 हजार 308 वोट मिले है। इस संख्या के अनुसार भाजपा को केवल डेढ़ हजार वोटों का नुकसान हुआ है। भानुप्रतापपुर उपचुनाव में सर्व आदिवासी समाज के उम्मीदवार अकबर कोर्राम ने भी दोनों प्रमुख दलों को चुनौती दी और वे 23 हजार 417 वोट पाने में सफल रहे। अब उनके मत की तुलना 2018 में आम आदमी पार्टी और जनता जोगी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवारों को मिले मत क्रमश: 9 हजार 634 और 9 हजार 611 से करें तो सर्व आदिवासी समाज के उम्मीदवार को अभी मात्र 4 हजार ही ज्यादा मिले है। इसका मतलब है कि भाजपा और कांग्रेस के विरोधी मत में केवल 4 हजार मतों की वृद्धि हुई है। अब समीक्षा इस बात की आवश्यक है कि इस चुनाव में अगर कांग्रेस पार्टी के मत कम हुए उसके बावजूद 21 हजार वोटों से जीत कैसे मिली? पहली बात तो यह कि स्व. मनोज मंडावी 2018 में 26 हजार से अधिक मतों से जीते थे। अगर अभी के चुनाव के मतों को जोड़ दिया जाए तो सर्व आदिवासी समाज के प्रत्याशी को मिले 5 हजार मत और भाजपा प्रत्याशी के कम हुए मत के कारण कांग्रेस पार्टी की उम्मीदवार 21 हजार से अधिक वोट से जीत पायी। लेकिन उपचुनाव के परिणाम से भाजपा की चिंता बढऩी चाहिए क्योंकि 2018 में जिन बूथों से भाजपा ने बढ़त हासिल की थी वे ज्यादातर चारामा तहसील के थे। उपचुनाव में चाराम तहसील के ज्यादातर बूथों पर कांग्रेस जीतने में सफल रही। इसका मतलब है भाजपा के मजबूत क्षेत्र में कांग्रेस ने सेंध लगा दी है। कांग्रेस पार्टी के लिए चिंता की बात यह है कि आम आदमी पार्टी और सर्व आदिवासी समाज अगर मिलकर आगामी चुनाव लड़ते हैं तो सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस पार्टी को होगा। सर्व आदिवासी समाज पिछले एक दशक से जनजाति वर्ग के हितों को लेकर दबाव समूह का कार्य कर रहा है। अब जब वह मैदान में उतरकर चुनाव लड़ चुका है तो ऐसे में मात्र 21 हजार मत प्राप्त करना उनके राजनीति भविष्य के लिए भी सुखद संदेश नहीं है।