प्रदेश में विभिन्न वर्गों को आरक्षण का कोटा बढ़ाने संबंधी विधेयक विधानसभा में पास होकर राजभवन में राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए अटका हुआ है। यह विधेयक उस विषय पर है जिसे उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण का कोटा बढऩे के कारण आदिवासियों को दिया गया 32 प्रतिशत का आरक्षण अवैध है। स्वाभाविक है जब 58 प्रतिशत को कोर्ट ने खारिज कर दिया तो विधानसभा से पारित 76 प्रतिशत के आरक्षण कोटे को न्यायालय कैसे स्वीकृति देगा? यही सवाल राजभवन पैदा हुआ और इसका जवाब देने के लिए सरकार तक भेजा गया। राजभवन के द्वारा विधेयक पर सवाल किए जाने पर राजनीति शुरु हो गयी। सरकार की ओर से राजभवन के विरुद्ध टिप्पणियां होने लगी, यहां तक के उस विधि विशेषज्ञ पर सवाल भी सवाल दागे गए और इस प्रक्रिया को गैर संवैधानिक बताया गया। कांग्रेस पार्टी ने विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने का विरोध करते हुए 3 जनवरी से पूरे प्रदेश में आंदोलन करने की भी घोषणा कर दी है। इसका मतलब है कि सरकार जिनके द्वारा बनाई गई है, उसी सरकार की पार्टी अपने मुखिया के विरुद्ध आंदोलन करेगी। यह भी हुआ कि सरकार 10 सवालों का जवाब दे देगी और मुख्यमंत्री ने ऐलान किया कि जवाब राजभवन को भेज दिए गए है। ऐसी जानकारी मिल रही है कि जवाब के नाम पर कोई तथ्यात्मक जानकारी सरकार की ओर से राजभवन को नहीं दिए गए है। यहां से कई सवाल खड़े होते है पहला तो यह कि किसी विधेयक पर हस्ताक्षर कब करेगी यह संविधान में नहीं लिखा है और राज्यपाल को दस्तखत करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह है कि क्या राजभवन के पास किसी विधेयक से संबंधित सवाल पूछने का अधिकार है? एक बात तो तय है कि राज्यों में नियुक्त राज्यपाल के पास संवैधानिक विशेषाधिकार होते है। इस विशेषाधिकार के तहत वह अपनी सरकार से किसी भी विषय पर सवाल पूछ सकती है और सवाल पूछे भी है तो उस पर आपत्ति क्यों होना चाहिए। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की गरिमा को खंडित करना क्या सरकार के लिए उचित होगा? पूरे प्रकरण में एक बात तय है कि आरक्षण का विधेयक नौकरी और शैक्षणिक संस्थाओं में जनजाति और पिछड़े वर्ग को लाभ देने के लिए लाया गया है और संभावना यह है कि मामला न्यायालयीन प्रक्रियाओं में उलझेगा। कोशिश यही होगी जैसे-तैसे चुनाव तक मामले को लटकाया जाए।