संसदीय लोकतंत्र सत्ता परिवर्तन करने की एक मौन क्रांति है। हर पांच साल में चुनाव होते है और जनता सरकार के कामकाज पर जनप्रतिनिधियों की सक्रियता के आधार पर तय करती है कि अगला पांच साल सरकार को दोबारा मौका देना या सत्ता की बागडोर किसी दूसरी पार्टी के हाथों सौंपना है। इस लिहाज से लोकतांत्रिक चुनाव के बाद जो सरकार बनती है उसका ध्यान अगले पांच साल जनता के कल्याण देश-प्रदेश के विकास पर अधिक होगा तो जनता का मन और वोट जीतने में सरलता होती है। राज्य निर्माण के बाद भारतीय जनता पार्टी 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद लगातार 3 बार चुनाव जीतकर सरकार बनाई। जब पहला चुनाव हुआ और उसमें भाजपा को जीत मिली तो यह अजीत जोगी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनमत था। इसके बाद 2008 और 2013 में डॉ रमन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के समर्थन में जनमत बना जिसके कारण 15 साल लगातार भाजपा को सत्ता सुख मिला। अब 2023 में जो चुनाव होगा उसमें यह निर्णय होगा कि जनता इस सरकार के 5 साल के कार्यकाल से खुश होकर अगली पारी देती है या भारतीय जनता पार्टी को फिर से मौका देगी? इसका मतलब है कि किसी भी सरकार को आगे की सोचकर काम करना चाहिए। लेकिन राजनीति में जो विकृतियां आ रही है उसके कारण पिछली सरकार के दौरान राग-द्वेष से प्रभावित होकर राजनेता और अधिकारियों से बदला लेने की भावना प्रबल हो जाती है। 2018 में भूपेश बघेल सरकार जब सत्ता में आई उसके बाद के 3-4 महीनों में डॉ रमन सरकार के दौरान किए गए कार्यों और संबंधित अधिकारियों के खिलाफ जांच बिठा दी गई। इसी तरह की जांच नागरिक आपूर्ति निगम में भ्रष्टाचार के उजागर होने के लिए बिठायी गई थी। 4 साल बीत गए, जांच समिति की न तो कोई रिपोर्ट आई है और न ही किसी दोषी के खिलाफ कार्रवाई हो पायी है। केवल राजनीतिक बयानबाजी हो रही है और बेसिर-पैर के आरोप लगाए जा रहे है। इधर नान घोटाले को लेकर केंद्रीय एजेंसियां सर्वोच्च न्यायालय में जो तथ्य प्रस्तुत कर रहे है उससे राजनीतिक साजिश की बू आती है। सरकार में रहते हुए जब मुख्यमंत्री और मंत्री किसी भ्रष्टाचार के मामले की बात करते है तो आश्चर्य होता है। जब सत्ता हाथ में तो फिर भ्रष्टाचार की जांच जल्द से जल्द कराकर दोषियों को सजा क्यों नहीं दिलाई जाती? इस तरह जब भूतकाल पर ध्यान ज्यादा होगा और प्रतिशोध की भावना होगी तो इससे संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था को ठेस पहुंचेगी।