प्रदेश में आरक्षण को लेकर भ्रम का वातावरण है, उस पर सुप्रीम कोर्ट के एक ऑर्डर को लेकर मीडिया से राजनीति तक जिस प्रकार से प्रचारित किया गया, उससे भ्रम और बढ़ गया है। सोमवार को इस तरह की खबर आई कि प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 58 प्रतिशत आरक्षण को जारी रखने का फैसला दे दिया है। मतलब उच्च न्यायालय ने सितंबर में प्रदेश में लागू 58 प्रतिशत आरक्षण को खारिज कर दिया था उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है। इस खबर के बाद सरकार ने भी बैठक कर भर्ती परीक्षा कराने का निर्णय लिया ऐसी खबर आई। आज जब सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर की कॉपी मिली तो पता चला कि सुप्रीम कोर्ट ने 58 प्रतिशत को लेकर कोई आदेश नहीं दिया है। कोर्ट ने केवल प्रदेश में भर्ती और पदोन्नति की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए कहा है। इस आदेश में न तो उच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लेख है और न ही आरक्षण कोटा को लेकर कोई आंकड़ा। ऑर्डर में तो यह भी लिखा है कि प्रदेश में जो भी निर्णय लिया जाएगा वह कोर्ट के अंतिम निर्णय से प्रभावित होगा। अब सवाल यह भाई कि जब सुप्रीम कोर्ट ने 58 प्रतिशत के बारे में कुछ कहा ही नहीं तो मीडिया से लेकर सरकार तक में इसकी चर्चा कैसे हुई? इसका दोषी कौन है? पहली बात तो सरकार के पक्ष रखने वाले वकीलों ने मीडिया और सरकार को जो बताया होगा वही बात सार्वजनिक हुई होगी, इसका मतलब इस भ्रम को फैलाने के दोषी वकील हैं? या मीडिया ने बिना जानकारी लिए आधे अधूरे तथ्य के आधार पर समाचार परोस दिया? अगर ऐसा है भी तो सरकार को तो आदेश की कॉपी मिलने तक इंतजार कर लेना था, इसका श्रेय लेने की हड़बड़ी में शासन ने भी लापरवाही की। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संकट और गहरा गया है। हालांकि सरकार की जिद है कि 76 प्रतिशत पर ही भार्ती करनी है वरना देश भर में 50 प्रतिशत आरक्षण कोटा के आधार पर भर्ती परीक्षाओं के परिणाम घोषित कर सकती है और नई परीक्षाएं भी ले सकती है। जब निर्णय आएगा तब नई व्यवस्था लागू की जा सकती है। सरकार को विषय की गंभीरता समझनी चाहिए, छात्र परेशान हैं, महाविद्यालयों में प्रवेश बाधित होंगी। पीढ़ी का नुकसान है, ऐसे में सरकार को युवाओं को समझते हुए आगे बढऩा चाहिए। लेकिन चुनाव करीब है और वोटबैंक का सवाल है इसलिए कुछ निर्णय होगा इसकी संभावना कम है। वैसे भी आरक्षण को लेकर पिछले 6-8 महीनों से केवल राजनीति हो रही, जिसका खामियाजा पढऩे वाले बेरोजगार युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। प्रदेश में आरक्षण का मामला छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैसले से पेचीदा हुआ जब प्रदेश में 2012 से लागू 58 प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया गया। इसके बाद प्रदेश में वापस 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू हो गई। इस निर्णय से सबसे अधिक नुकसान जनजातीय समाज को हुआ क्योंकि 2012 में जनजातीय वर्ग के आरक्षण का कोटा 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 32 प्रतिशत किया गया था वहीं अनुसूचित जाति की आबादी के अनुसार आरक्षण को 16 प्रतिशत से घटाकर 12 प्रतिशत किया गया था। इस निर्णय से नाराज अनुसूचित जाति समाज के प्रतिनिधि उच्च न्यायालय गए थे। इधर प्रदेश सरकार ने जनजाति समाज के विरोध को देखता हुए विधानसभा में आरक्षण कोट में संशोधन करने एक और विधायक ले जिसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। इसके अनुसार प्रदेश में 76 प्रतिशत आरक्षण कोटा दिया गया है जिसमें आदिवासियों को 32 प्रतिशत के साथ पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस विधेयक को राजभवन में लंबित रखा गया है क्योंकि उच्च न्यायालय के फैसले को शासन ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी हुई है। अब सवाल यह है कि जब 58 प्रतिशत आरक्षण कोटा असंवैधानिक है तो फिर 76 प्रतिशत कैसे स्वीकृत होगा? मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चलती रही और आरक्षण की व्यवस्था के भ्रम में प्रदेश की भर्ती परीक्षाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश की परीक्षाएं लटक गई। इस कारण छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से भर्ती के लिए अनुमति मांगने के प्रयास किए। इसी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति दी लेकिन उसमें कोई स्पष्टता नहीं है।