Home बाबू भैया की कलम से साय प्रकरण; राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं

साय प्रकरण; राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं

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राजनीति के क्षेत्र का एक बड़ा नाम नंद कुमार साय अब अपने नए घर में प्रवेश कर गए हैं। पुराना घर उन्हें अब खंडहर सा लगने लगा था। उनकी कल्पना के भूत उन्हें वहां डराने लगे थे। वहां उनका दम घुटने लगा था। घुटेगा भी क्यों नहीं , जब तक ताजपोशी रही तब तक ये भूत अँधेरों में छुपे रहे। सामने आने की हिम्मत नहीं की। तब सताने का तो प्रश्न ही नहीं था। अब कुर्सी खाली है, तो कथित भूत उनका अपमान करने लगे। उनके राजनैतिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगा कर उन्हें परेशान करने लगे। बड़े मंच पर बिना सलाह मशविरे , राजनीति के उनकी तुलना में एक नाटे कद के नेता ने कह दिया कि जब तक कांग्रेस को सरकार से हटा नहीं देंगें, तब तक साय बाल नहीं कटाएंगें। बुरा तो लगना ही था। हमारे प्यारे दुलारे बालों को बलि चढ़ाने वाले तुम कौन हो भाई ? समझ गए यह उनसे पूछे बिना घोषणा किया जाना अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें नीचा दिखाने का व अपमान करने का प्रयास है। पार्टी के कद्दावर नेता थे नंदकुमार साय। लंबे समय से खाली बैठे थे। पार्टी में कोई तवज्जो नहीं। बैठकों में बुलावा नहीं। कोई सुझाव सलाह नहीं। सोचिए अटल बिहारी बाजपेयी जैसे कद्दावर नेता के साथ सहज काम करने वाले किसी नेता की यह हालत हो जाये तो वो क्या सोचेगा ? और आखिर करेगा क्या ? हर कोई आडवाणी-मुरली मनोहर नहीं हो सकते। डॉ.रमनसिंह सरकार के कार्यकाल में अपनी घोर उपेक्षा के कारण यदा कदा पार्टी को आंख दिखाने वाले बयान देकर ही संतुष्टि करनी पड़ती थी। सनसनी फैलती थी मान मनौवल के बाद राजनीतिक तूफान शांत हो जाता था। यह भी सच है कि वे मान भी जल्दी जाते थे। वे गांव गरीब व आदिवासियों के हित की राजनीति को ही असल जनसेवा मानते हैं। अब आरएसएस व भाजपा के बाद घोर विरोधी पार्टी रही कांग्रेस में आ गए तो अपनी व्यथा बताने के साथ जो बात कही वह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। यह कहा कि वे मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल द्वारा प्रदेश के लिए किये जा रहे कार्यों से बहुत प्रभावित हैं। नरवा-गरुवा-घुरूवा-बाड़ी जैसी ग्रामीणों की सेवा की कल्पना के कायल हैं। इसीलिए वे जनसेवा के लिए भूपेश का नेतृत्व स्वीकार रहे हैं। पूरा जीवन आरएसएस व भाजपा जैसी अपने सिद्धांतों व नीतियों से समझौता नहीं करने वाली संस्थाओं से निष्ठा के साथ जुड़े रहे। उनका मोहभंग कोई तात्कालिक घटना नहीं है ,निश्चित रूप से लंबी सोच विचार के बाद लिया गया गंभीर निर्णय है। यही कारण है कि जब डैमेज कंट्रोल के लिए भाजपा के दिग्गज उनके निवास के द्वार पर पहुंचे तो साय के परिवार ने भी उनकी कोई मदद नहीं की। साय से किसी की बात नहीं कराई। साफ है कि घर बदलने का निर्णय पक्का था,उसमें कोई फेरबदल करने व भावनाओं का आधार शेष नहीं था। लगता है इतना अपमान महसूस किया गया था कि उन्हें इस दौर में भाजपा द्वारा उनको समय समय पर विधायक,सांसद,राज्यसभा सांसद, अविभाजित मध्यप्रदेश का प्रदेश अध्यक्ष, बहुत ही विषम परिस्थितियों में छतीसगढ़ का प्रथम नेता प्रतिपक्ष बनाये जाने का एहसान भी याद नहीं आया। वर्तमान अपमान के घाव का दर्द कुछ ज्यादा ही भारी पड़ा। इतना भारी की पुराने घर की दीवारें भी उनको सताने व डराने लगी। घर भी जेल के विशेष सेल की तरह डरावना लगा। दम घुटने लगा तत्काल ताजी हवा की जरूरत महसूस हुई। हल ढूंढना शुरू हुआ। राजनीति का ऑक्सीजन दिल्ली जाने पर मिला,रास्ता बना। जब तक पुराने घर के साथी कुछ समझ पाएं,अचानक धमाका कर दिया। कल तक जिसे कोसते रहे उसका दामन थाम लिया। सही कहा है राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। राजनीति ही एकमात्र मंच है जहां विरोधी भी दोस्त होते हैं। दुश्मन भी अगले ही क्षण दोस्त हो सकते हैं। यहाँ वोट की स्वार्थी राजनीति को प्राथमिकता में रखा जाता है। बाकी सब कृत्य दूध- भात होता है। इसी राजनीति में नंदकुमार साय को अपने साथ जोड़ कर भूपेश बघेल ने सटीक दांव खेल कर बहती नदी की धारा के रुख को पलटने का काम किया है। भाजपा इस दांव से हतप्रभ हुई है। इसकी भरपाई नहीं हो सकती। भविष्य में आदिवासी राजनीति में नया परिवर्तन दिखाई दे सकता है। कांग्रेस के लिए कल का दिन दोनों हाथ में लड्डू जैसा प्रसंग रहा है। एक तो आदिवासी कद्दावर नेता साथ आये ,दूसरा सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की रोक को बहाल कर दिया। इन दोनों लड्डूवों की कितनी मिठास कांग्रेस के चुनावी दौर में घुलेगी यह देखने की बात है।चुनावी दौर की उलट पलट में और कौन कौन दोस्त-दुश्मन का खेल खलेंगें यह देखना है। देंखें आगे आगे होता है क्या ?