मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके शहडोल से मानवता को झकझोर देने वाली एक घटना सामने आई। यहां एक पिता को अपनी बेटी का शव बाइक पर ले जाना पड़ा। क्योंकि, अस्पताल ने एंबुलेंस देने से इन्कार कर दिया था। कितना हृदयविदारक मंजर रहा होगा, उस पिता के लिए जिसने पहले 13 साल की बेटी की मौत का दर्द झेला, फिर उसके शव को घर ले जाने के लिए साधन भी नसीब नहीं हो सका।घटना शहडोल जिले के कोटा गांव की है। सिकल सेल एनीमिया से पीडि़त 13 साल की माधुरी गोंड की अस्पताल में मौत हो गई। बाइक पर शव ले जाते पिता की तस्वीर जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई तो प्रशासन की आंख खुली। घटना की जानकारी मिलने पर कलेक्टर वंदना वैद्य ने स्वयं वहां पहुंचकर शव वाहन की व्यवस्था कराई।सवाल उठता है, जब इस तरह का मंजर सोशल मीडिया पर वायरल होता है क्या तभी प्रशासन की नींद खुलती है। इससे पहले भी शहडोल में कई बार शवों को कभी खटिया पर, कभी लकड़ी के पटिए तो कभी साइकल पर ले जाने की दु:खद तस्वीरें सामने आती रहीं हैं। क्या सरकार गरीबों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकती कि मजबूरी में उसे किसी का मुंह नहीं देखना पड़े। निश्चित रूप से इसे अस्पताल प्रबंधन की निष्ठुरता ही माना जाएगा, जो एक गरीब का दर्द नहीं समझ सका। जिस मध्यप्रदेश सरकार को जनता का हितैषी कहा जाता है, जब उसी प्रदेश में गरीब तबका अपने हक से महरूम रहे, तो शासन और प्रशासन पर उंगली उठना लाजमी है। चंद महीनों पहले की मध्यप्रदेश के मुरैना की वह घटना भला कौन भुला होगा, जब आठ साल के एक बच्चे की गोद में दो साल के भाई के शव का फोटो सामने आया था। मुरैना के अम्बाह का वीडियो भी वायरल हुआ। दरअसल, ये हमारी संवेदनाओं के भोथरा होने का चरमोत्कर्ष है। अब ऐसे दृश्य देखकर दिल नहीं कचोटता, पर सोचिए उस 8 साल के बच्चे के दिल पर क्या गुजरी होगी। जिसकी गोद में अपने छोटे भाई का शव था, जिसके साथ उसकी कई यादें जुड़ी होगी। अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बोझ दिल पर लिए वो मासूम अपने पिता की लाचारी और दुनिया से मदद की उम्मीद लिए क्या देख और सोच रहा होगा। आज फिर इस घटना को देखकर उस लाचार पिता का दर्द आंखों में कचोट रहा है।मध्य प्रदेश को देश का दिल कहा जाता है। लेकिन, अब इस तरह के दर्द भरे दृश्यों पर हमारी मानवीय संवेदना भी निष्ठुर होती जा रही है। क्या हमारी संवेदनाएं सिर्फ सोशल मीडिया पर पोस्ट और कमेंट करने तक ही सीमित रह गई! क्या कोई दरियादिली दिखाकर उस पिता के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं कर सकता था।यह देश की पहली और आखिरी द्रवित करने वाली तस्वीर नहीं है। लेकिन, कमजोर होते मानवीय मूल्य और शासन-सत्ता से उठते विश्वास पर सवाल उठने लाजिमी हैं। आज हम बड़ी-बड़ी इमारतों पर इतराते हैं। मानवीय सभ्यता अपने विकास के शीर्ष पर होने को लेकर इठलाती है, लेकिन इन बुलंदियों के बाद भी जब हम मानवीय स्तर और संवेदनाओं की बात करते हैं। फिर एक इंसान के रूप में अपने- आपको सबसे निचले स्तर पर पाते हैं। बड़े आदमी का कुत्ता भी बीमार हो जाए तो उसकी सुर्खियां बन जाती है। लेकिन, एक गरीब का दर्द किसी को नजर नहीं आता। आज मानव संवेदनाएं भी सरकारी तंत्र की तरह हो गई है। जिसे न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है। बात रहनुमाई व्यवस्था की करें, तो उसके लिए यह घटना शायद मायने ही न रखती। क्योंकि, गरीब का दर्द सरकार को न तो सुनाई देता है और न दिखाई। उसके लिए तो मानो उनकी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर उन्हें कौन कहे कि ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी है। ऐसे में जिस दिन हमारी रहनुमाई व्यवस्था गरीब का दर्द समझ जाएगी उस दिन सही मायनों में देश विकास की बुलंदियों को छू लेगा।