छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारी निर्वाचन आयोग ने शुरू कर दी है। इधर प्रदेश में भी कांग्रेस और भाजपा दोनों प्रमुख पार्टियों ने रणनीति बनाना शुरू कर दिया है, संगठन की बैठकों का दौर जारी है। सत्तारूढ़ पार्टी में सत्ता और संगठन के बीच तालमेल भी जरूरी होता है और कांग्रेस की बात करें तो बड़े नेताओं के बीच आपसी खींचतान का भी असर होता है। 2003, 2008, और 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार का एक महत्वपूर्ण कारण नेताओं की आपसी लड़ाई और इसके चलते एक दूसरे को निपटाने की प्रवृत्ति भी था। अभी संभागीय सम्मेलन में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस बात को स्पष्ट भी किया कि अजीत जोगी के गुट की महत्वाकांक्षा के चलते चुनाव में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। अब स्थिति बदल गई है, पार्टी नई पीढ़ी के हाथों है और इस पीढ़ी के नेताओं की महत्वाकांक्षा कोई कम नहीं है इसलिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम के बीच सामंजस्य जरूरी है। लेकिन जब पार्टी सत्ता में होती है तो संगठन को तक पर रखकर सत्ता केंद्रित चुनाव की रणनीति बनती है। इस कारण कार्यकर्ताओं में नाराजगी भी होती है। कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेता भी अपने क्षेत्रों में अपना महत्व चाहते हैं। जांजगीर, चांपा, कोरबा और बिलासपुर में डॉ. चरणदास महंत तथा सरगुजा में मंत्री टी एस सिंहदेव के नेतृत्व में पिछला चुनाव कांग्रेस ने लड़ा था। अब इनको ज्यादा महत्व नहीं मिलने से नाराज बताए जा रहे हैं। टी एस सिंहदेव तो मुख्यमंत्री पद के ढ़ाई ढ़ाई साल के फॉर्मूले के अमल नहीं होने के कारण भी नाराज हैं। इधर वरिष्ठ नेताओं में सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, ताम्रध्वज साहू को भी साधना होगा। कुल मिलाकर कांग्रेस को आगामी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के अलावा अपनी पार्टी के भीतर भी चुनौती मिलेगी। पार्टी को इन दोनों मोर्चों पर लड़ाई लडऩी होगी। इधर पिछले चुनाव में 68 सीटों पर जीत हासिल करके और फिर लगातार उपचुनाव जीतकर पार्टी को जीतने की आदत लग गई है। यही कारण है कि संगठन के भीतर अगले चुनाव में 75 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने के नारे लग रहे हैं। कांग्रेस संगठन स्तर पर तैयारी शुरू कर दी है, वर्तमान में 71 विधायकों के काम काज का भी आंकलन किया जा रहा है। कांग्रेस की बड़ी जीत ही अगले चुनाव में एक चुनौती बनेगी क्योंकि कई नए विधायकों के प्रदर्शन के आधार पर टिकट कटने की बात आयेगी और विधायक का टिकट काटना मुश्किल भरा निर्णय होता है। अगर टिकट नहीं कटी तो जनता की नाराजगी झेलनी पड़ेगी और टिकट कटी तो विधायक और उसके समर्थकों की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। आजकल पहली बार के विधायक भी धन से ताकतवर हो जाते हैं और अपना एक छोटा गुट अपने क्षेत्र में बना लेते हैं। इन चुनौतियों को पर करके ही कांग्रेस अपने पिछले प्रदर्शन को दोहरा पाएगी।