क्या जन्म के साथ ही नए अवतार वाले इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव एलायंस यानी इंडिया के नाम को लेकर विपक्ष के नेता असहज होने लगे हैं? क्या यह असहजता इतनी बढ़ेगी कि एक बार फिर से यह तीसरे मोर्चे की वजह बन जायेगी? यह सच है कि संयुक्त प्रजातांत्रिक गठबंधन यानी संप्रग का अंग्रेजी नामकरण इंडिया हिंदी पट्टी के नेताओं को कम लुभा रहा है। क्या यही एक वजह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव बुजुर्ग लालू प्रसाद के साथ फाइनल बैठक से पहले ही बेंगलुरु से रवाना हो गए? इनकी तरह ही उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव अपने चाचा प्रो. रामगोपाल के साथ गठबंधन के ऐलान वाली प्रेस कांफ्रेंस से पहले मंच से नदारद रहे। भारतीय जनता पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में घेरने के लिए संयुक्त विपक्षी गठबंधन की यह दूसरी बैठक दक्षिण के राज्य कर्नाटक में थी। इसलिए यहां गठबंधन का अंग्रेजी नाम इंडिया रख पाना संभव हुआ। इस पर पड़ोसी तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश व बंगाल समेत पूर्वोत्तर राज्यों के नेताओं का तत्काल कोई ऐतराज उभरकर सामने नहीं आया। शायद यह विपक्षी एकता की पटना वाली पहली बैठक में संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी वाले नाम को लेकर हिंदी समर्थक नेताओं की असहजता स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश में स्व. मुलायम सिंह की पूरी राजनीति प्रखर हिंदी समर्थक के बल पर खड़ी थी। कांग्रेस संग किसी चुनावी एलायंस की गंभीर पहल से बचते रहे अखिलेश यादव को इंडिया नाम कितना पसंद आया यह आने वाले दिनों में नजऱ आएगा। नाम को लेकर खड़ा होने वाला विवाद बढ़ा तो तत्काल इसका असर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा। ये तीनों राज्य इसी साल चुनावी परीक्षा से गुजरने वाले हैं और भाषाई लिहाज से हिंदी समर्थक हैं। गठबंधन के इस नए अवतार का नामकरण कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने किया है इसलिए यह मुमकिन नहीं कि इस पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपनी कोई इतर राय रख पाएं। मगर यह पैबंद गठबंधन में शामिल किसी गैर कांग्रेसी नेता पर कतई लागू नहीं होता है। जहां तक बात एकमत होने की है तो यह समाजवादी पृष्ठभूमि के जनता परिवार वाले नेताओं पर कतई लागू नहीं होती। वैचारिक समाजवादियों को लेकर मशहूर प्रहसन है कि ये इक_ा होते ही बिखरने के लिए हैं। संप्रग की जगह इंडिया को जिन राज्यों में दिक्कत हो सकती है उसमें 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश, 40 सीटों वाला बिहार शामिल है। यानी कुल 120 सीटें हैं। इसी तरह अंग्रेजी नाम से असहज राज्यों में राजस्थान की 25, मध्य प्रदेश की 29 और छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटें यानि कुल 65 सीटें हैं। प्रखर भारतीय अस्मिता वाले राज्य तेलंगाना से लोकसभा की 17 सीटें हैं। बिहार से लगे हिंदीभाषी राज्य झारखंड से 14, हरियाणा से 10, दिल्ली से 7, उत्तराखंड से 5, हिमाचल से 4 सीटों के मतदाता संप्रग की जगह इंडिया वाले नामकरण से कैसे लुभाए जाएंगे इस चुनौती से एकजुटता में दरार को आशंका बनी रहेगी।
विपक्षी एकता की इस दूसरी बैठक से बिहार के नेताओं को कुछ ज्यादा ही उम्मीदें थीं। शायद इसलिए भी ज्यादा निराशा मिली। उम्मीद की वजह विपक्षी एकता के अग्रणी नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा से जुड़ी रही। गठबंधन के नए नामकरण की बजाय उनको लग रहा था कि इस बैठक में विपक्षी गठबंधन के संयोजक के नाम पर सहमति बनेगी। नीतीश कुमार स्वयं संयोजक के उम्मीदवार थे। राजद प्रमुख लालू प्रसाद भी चाह रहे थे कि नीतीश कुमार को संयोजक बनाने का ऑफर मिले। इससे बेटे तेजस्वी यादव के बिहार के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता निकलेगा। मगर इस पर कोई निर्णायक घोषणा ही नहीं हुई। यही वजह है कि तीनों ने नाराज होकर विपक्ष के मंच से लोगों को संबोधित करने के आयोजकों के ऑफर को टाल दिया। साथ ही प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले बेंगलुरु छोड़ दिया। आयोजकों ने संयोजक बनाने के निर्णय पर पहुंचने के लिए ग्यारह नेताओं की कमेटी बनाने का फैसला लिया है। इंडिया की यह कमेटी महाराष्ट्र में होने वाली अगली बैठक में अपना निर्णय सुनाएगी। इस हाई पावर कमेटी के समक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए विपक्ष से भावी प्रधानमंत्री के चेहरे के नाम पर विमर्श करने का दायित्व भी सौंपा गया है।
अंदरखाने की खबर है कि जनता परिवार के नेताओं ने कमेटी गठन की रणनीति को मेज़बान कांग्रेस का अडिय़ल और टालमटोल भरा रवैया माना है। बंगलुरू से जनता परिवार के नेताओं में उभरा यह विवाद ही तीसरे मोर्चा के गठन की वजह बन सकती है। वैसे भी बिहार में भाजपा विरोध में खड़े सत्तारूढ़ जनता दल यू और राजद में विलय की आशंका बार बार जताई जा रही है। इस विलय में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोकदल, ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल आदि के शामिल होने का शिगूफा एकबार फिर से छोड़ा जा रहा है। वैसे भी पुराने जनता दल परिवार के घटकों को फिर एक होने की बात पुरानी है। मुलायम सिंह के दिनों में ही नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी जनता दल यू का समाजवादी पार्टी के साथ विलय करने का फैसला कर रखा था। वह अपनी पार्टी निशान तीर को छोड़ नए दल के किसी नए निशान पर चुनाव लडऩे की बात तब भी कर चुके थे, जब 2014 में उन्हें विपक्ष से प्रधानमंत्री पद का भावी उम्मीदवार होने की संभावना दिखी थी। मगर गैर कांग्रेसी दलों में कांग्रेस को साथ लेकर भाजपा के खिलाफ मोर्चा संभव नहीं हो पाया तो विलय का प्रस्ताव किनारे रख लिया गया। राजनीति संभावनाओं का खेल है। इसी संभावना में नीतीश कुमार एक बार फिर साल भर से राजग यानी एनडीए के खिलाफ खड़े हैं। संप्रग जब इंडिया बन गया और नए नाम से जब इसकी पहली बैठक में नीतीश कुमार समेत जनता परिवार के नेताओं को अपेक्षित तवज्जो नहीं मिली है, तो विदेशी भाषा के विरोध के नाम पर ही सही तीसरे मोर्चे के गठन की गुंजाइश पैदा हो रही है। इस गुंजाइश में नीतीश की अगुआई में लालू, अखिलेश, नवीन पटनायक, जयंत, चौटाला आदि नेता फिट बैठते नजर आ रहे हैं।