भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर, पर लगता है कि उसकी गरिमा और महत्ता का ध्यान उन्हें ही नहीं है, जो उसके माननीय सदस्य हैं। विपक्ष के हंगामे या अनुपस्थिति में कुछ जरूरी सरकारी विधेयक पारित करने के अलावा देश हित में कोई महत्वपूर्ण चर्चा संसद अपने मानसून सत्र में अभी तक नहीं कर पाई है। स्वाभाविक सवाल होगा कि क्यों, पर जवाब उतना सरल नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में दो ही पक्ष होते हैं : सत्तापक्ष और विपक्ष, और दोनों की सकारात्मक भूमिका से ही संसद चल सकती है, पर जब-जब संसदीय गतिरोध पर सवाल उठते हैं, दोनों एक-दूसरे पर उंगलियां उठाने लगते हैं। ग्रीष्मकाल से वर्षा ऋतु आ गई, लेकिन छोटा-सा खूबसूरत पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर मैतेई और कुकी जातीय हिंसा की आग में अभी भी जल रहा है। मणिपुर इस आग में जल तो मई से रहा है, पर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही उस समय कर्नाटक की सत्ता के लिए चुनावी जंग में व्यस्त थे। दूसरे, संसद के बजट सत्र में एक-दूसरे पर निशाना साधने के लिए उनके तरकश में और तमाम राजनीतिक तीर थे। फिर अब मणिपुर को हिंसा की आग में जलते हुए अढ़ाई महीने से ज्यादा हो गया है, और उसकी तपिश अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से लेकर दूसरे देशों की संसद तक में भारतीय छवि को झुलसा चुकी है। सो, इसी साल होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करने का दोनों ही पक्षों को यह अनुकूल अवसर लगता है। इसीलिए विपक्ष मणिपुर हिंसा पर नियम 267 के तहत चर्चा और प्रधानमंत्री के बयान के लिए अड़ा रहा, जबकि पक्ष नियम 176 के तहत चर्चा और गृह मंत्री अमित शाह द्वारा जवाब के लिए ही तैयार था। दोनों ही पक्षों के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, पर जब एक राज्य हिंसा की आग में जल रहा है, दो मणिपुरी महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने और उनसे बलात्कार का वीडियो वायरल होकर देश को दुनिया में शर्मसार कर चुका है, तब संसद में चर्चा को नियम के विवाद में उलझा कर क्या संदेश देना चाहते थे? अगर संसद सीमावर्ती राज्य के ऐसे संवेदनशील हालात पर भी चर्चा नहीं करती और बजट समेत महत्वपूर्ण विधेयक बिना चर्चा ही पारित कर दिए जाते हैं, तब जन मानस में देर-सवेर यह स्वाभाविक सवाल उठेगा ही कि यह संसद किसकी खातिर है, किसके लिए है? अब विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के मास्टर स्ट्रोक के बाद संसद में चर्चा भी होगी और उसका जवाब भी प्रधानमंत्री को ही देना होगा। फिर इस संसदीय गतिरोध से क्या हासिल हुआ? मानसून सत्र में मणिपुर पर संसद के इस मौन से भी बड़े और प्रासंगिक सवाल उसके कामकाज को लेकर उठने लगे हैं।