कल 11 अगस्त को गोस्वामी तुलसीदास जी की 527 वीं जयंती थी. उनकी महान रचना रामचरित मानस को पढ़ते हुए हम बड़े हुए हैं. बचपन में पिताजी ने मानस पढऩे के लिए दिया था। उसका नियमित पारायण हम लोग करते थे । राम मंदिर में जाते तो वहां किष्किंधा कांड और सुंदरकांड आदि भी नियमित पढऩे का अभ्यास चलता । इसी का सुपरिणाम यह हुआ कि किष्किंधा कांड की बहुत सारी चौपाइयां याद हो गई । रामचरितमानस की अनेक चौपाइयां, दोहे सहजता के साथ कंठस्थ हो गए। उसका लाभ यह हुआ कि मेरे लेखन में भी रामचरितमानस की चरणधूलि आती रही । और आज भी जब कभी मन अशांत होता है और कुछ अनुसंधान करने की इच्छा होती है, तो रामचरितमानस को पढऩे लगता हूँ। तुलसीदास की चौपाइयों और दोहों से गुजरते हुए खुद को अनायास ही पुनरनवीन करने लगता हूँ। बड़े होने के बाद रामचरित मानस को कभी मैंने एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में नहीं पढ़ा, ज्ञानार्जन के निमित्त ही पढा। अब भी पढ़ रहा हूँ। बहुत से लोग पढ़ते हैं । अनेक घरों में अखंड रामायण पाठ भी होता है। बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ लोग मंत्रमुग्ध होकर मानस का पाठ करते हैं । संगीतबद्ध पाठ भी करते हैं । फिल्मी धुनों मैं चौपाइयां तक गाते हैं, जिसे सुनकर श्रोता सिर हिला- हिला कर मगन हो जाते हैं । लेकिन मैं इस तरह की भक्ति से परे होकर एक विशुद्ध साहित्यिक विद्यार्थी के रूप में अकसर मानस को पढ़ता हूँ। बालकांड को बड़े मनोयोग से पढ़ता रहा हूं और हतप्रभ हो जाता हूं कि कैसे महाकवि तुलसीदास जी ने इतने विशाल ग्रंथ की रचना सहज भक्ति-भावना के साथ कर दी। इतना महान काव्य ग्रंथ रच कर भी तुलसी कहते हैं, ”कबित्त बिबेक एक नहीं मोरे /सत्य कहूं लिखि कागद कोरेÓÓ। बालकांड में उन्होंने काव्य-विमर्श भी जबरदस्त किया है। कविता कैसी होनी चाहिए, कवि को कैसा होना चाहिए, इस पर वे विस्तार से प्रकाश डालते हैं। मानस रामजी की महान कथा है, जिसे तुलसीदास ने सहज सरल शब्दों में प्रस्तुत किया मगर उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ यह स्वीकार किया कि यह मेरी अपनी कृति नहीं है। यह तो वाल्मीकि रामायण और नाना पुराण आदि पढ़कर जो कुछ नवनीत निकला, उसे मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ। और उन्होंने यह भी कहा कि ”कबि न होऊँ नहिं चतुर कहावऊँ / मति अनुरूप राम गुन गावउँ। कह रघुपति के चरित अपारा/ कहँ मति मोरि निरत संसाराÓÓ। अर्थ कठिन नहीं है कि न तो मैं कवि हूं और न अपने आप को चतुर कहलाता हूँ। मेरी अपनी जैसी बुद्धि है, उसके अनुरूप मैं रामजी के गुण गा रहा हूँ। कहाँ भगवान श्री रघुनाथ जी का अपार चरित्र और कहां संसार में आसक्त मेरी बुद्धि । यह महाकवि तुलसीदास जी की अद्भुत उदारता है । उन्होंने ऐसे महान ग्रंथ की रचना कर दी जो सीधे पूजा घर की पूजनीय वस्तु बन गया। तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में सज्जनों की वंदना की और गुरुजनों को भी बंदना की । तथाकथित ज्ञानियों की भी वंदना की। साधुओं की वंदना की । श्रेष्ठ कवियों को याद किया। चौपाई इस तरह है , ‘जे प्राकृत कबि परम सयाने/ भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने। भए जे अहहीं जे होइहिंआगे / प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागेÓ। तुलसीदास जी कहते हैं जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं। जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है । जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं और जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे भी होंगे। उन सबको मैं सारा कपट त्याग कर प्रणाम करता हूँ। इस तरह कदम-कदम पर तुलसीदास जी ने विनम्रता के साथ यह स्वीकार किया कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। यह तो प्रभु की कृपा से मानस की रचना हो गई। तुलसीदास जी यह भी जानते थे कि श्रद्धाहीन लोगों को यह ग्रन्थ पसंद नहीं आएगा इसलिए उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में यह दोहा रचा, ”जे श्रद्धा संबल रहित नहीं संतन कर साथ/ तिन्ह कहुँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।ÓÓ और यह भी कहा कि जो बेमन के साथ इस ग्रंथ को पढ़ेंगे, उन्हें पढ़ते साथ ही नींद आने लगेगी। ”जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई /जातहिं नीद जुड़ाई होई।ÓÓ इस तरह जब तक श्रद्धा ना हो रामचरितमानस में रुचि जाग्रत नहीं होगी ।और मूर्ख लोग बिना पढ़े ही इसकी निंदा करते रहेंगे। मगर जिसने एक बार मानस से अपना रिश्ता गाँठ लिया, वह तो इसकी एक-एक चौपाई पढ़कर अपने भाग्य को सराहेगा। मानस को पढ़कर मुझे यही अनुभूति हर बार होती रही।
और अंत में…मानस- गुणगान करते हुए दस चौपाइयां बनी, वह यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ।
चौपाई
रामचरितमानस जो पढ़ही। सत्य कहूं सदजीवन गढ़ही।।
हुलसी के तुलसी अति पावन। शुद्ध हृदय कवि जन-मनभावन।।
एक बार जो मानस चाखे। उसको स्वस्थ रामजी राखे।।
रामकथा कितनो मिल जाही। पर मानस से पार न पाही।
सच्चे मन जो पूजा करही। मानस पढ़कर जन-जन तरही।
कथा संग कुछ नीति बतावत। कवि तुलसी नित ज्ञान सिखावत।।
भक्ति,विवेक, ज्ञान की गंगा। पढ़ मानस मन होवत चंगा।।
मानस को अंतर में भर लें। जीवन को हम निर्मल कर लें।।
नस-नस में मानस बस जावे । तो हर मनुज महान कहावे।।
इधर-उधर मत भटको प्रानी। मानस पढ़ो, बनो तुम ज्ञानी।।
दोहा
पूजा मानस की करो, मगर होय वह व्यर्थ ।
केवल तोता-पाठ का, रहे न कोई अर्थ।।