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पत्रकार की हत्या

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बस्तर में एक पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई. पुलिस की तत्परता के कारण पत्रकार के सभी निर्मम हत्यारे गिरफ्तार हो गए. हत्यारों की सारी अकड़ भी खाक में मिल गई. अपनी अर्जित आर्थिक हैसियत के कारण वे तन कर चला करते थे. शादी में करोड़ों रुपए काअपव्यय करके खुश थे. अब वही जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं. और इस देश में अगर न्याय जिंदा है तो उन्हें आजीवन कारावास मिलना चाहिए और मुख्य आरोपी को फांसी की सजा भी मिले तो कम है. अब बात पत्रकारिता की अभिव्यक्ति की. बस्तर में इसके पहले भी पत्रकारों की हत्याएं होती रही है. कुछ हत्याएं नक्सलियों ने की. एक पुरानी कविता है कि प्रेम को पंथ कराल महा तलवार की धार पर धावनों है. इस कविता में प्रेम की जगह प्रेस कर देना चाहिए. प्रेस को पंथ कराल महा तलवार की धार पर धावनो है. नि:संदेह.भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई है. लेकिन क्या सचमुच पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. पत्रकार दुनिया भर को आईना दिखा सकता है, लेकिन जैसे ही वह सरकार को आईना दिखाने लगता है, तो उसके सामने खतरे बढऩे लगते हैं. पिछली कांग्रेस सरकार में हमने यह देखा. कुछ पत्रकारों को विशुद्ध रूप से अभिव्यक्ति के कारण प्रताडि़त किया गया. उन्हें जेल भेज दिया गया. वे और उनके परिवार के लोग मानसिक संत्रास से गुजरते रहे. मुझे लिखने में रत्ती भर का संकोच नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में भी पत्रकार प्रताडि़त होते रहे. अब यह सिलसिला बंद होना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान सरकार इस बार के लिए वचनबद्ध हो कि सरकार के विरुद्ध लिखे जाने पर किसी भी पत्रकार को प्रताडि़त नहीं किया जाएगा. आपत्ति है, तो उसे पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा चलाया जा सकता है. लेकिन फर्जी एफ़आइआर दर्ज करके उसे गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए. लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से कम होना चाहिए. न कि सामंती अंदाज में. राजतंत्र में ऐसा होता था. अंग्रेजों के शासनकाल में भी ऐसा होता था. जिस स्वतंत्रता सेनानी ने अंदर कर दिया जाता था. कहा जाता था, यह राजद्रोह कर रहा है. ठीक है उस समय अंग्रेजों के खिलाफ लिखा जाना, उनकी नजऱों में एक तरह से राजद्रोह ही था. लेकिन आपको देश आजाद है. अब तो किसी भी सरकार के विरुद्ध दिखा जा सकता है. अगर कोई चुनी हुई सरकार कुछ गलत कर रही है, तो हर पत्रकार और अख़बार का दायित्व है कि वह उसके विरुद्ध आवाज़ उठाए. लेकिन मेरा निजी अनुभव यह है की सरकार के विरुद्ध लिखने पर सरकार का कोई पिछलग्गू उसके खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कर देता है. कुछ तो पत्रकार पर झूठे आरोप लगा देते है कि वह पैसे मांग रहा था. पत्रकार पर ब्लैकमेल का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है. किसी आरोप के तहत देश के अनेक पत्रकारों पर कार्रवाई होती रही है. पत्रकारों पर ऐसे आरोप बिल्कुल उसी तरह के होते हैं, जैसे कोई बहू थाने में जाकर ससुराल वालों पर दहेज प्रताडऩा का आरोप लगा दे. सबको पता है कि ज्यादातर आप झूठे होते हैं. मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगता है कि आज भी पत्रकारिता जिंदा है. आज भी पत्रकारों का जमीर जिंदा है. आज भी ऐसे पत्रकार हैं जो बिकते नहीं. बस्तर में ऐसे पत्रकारों की भरमार है. वे बेबाकी के साथ सच लिखते हैं. भले ही उनकी जान चली जाए. पिछले साल बस्तर के पत्रकार को सच लिखने के कारण फर्जी तरीके से गिरफ्तार कर लिया गया था. उनकी गाड़ी में गांजा रखकर आरोप लगाया कि वह गांजा की तस्करी कर रहे थे. पत्रकारों के सामने बड़ी चुनौती यही है की पुलिस के खिलाफ लिखो तो पुलिस पीछे पड़ जाती है.नक्सलियों के विरुद्ध लिखो तो नक्सली पीछे पड़ जाते हैं, और माफिया के विरुद्ध लिखो तो वे जान लेने पर आमादा हो जाते हैं. लेकिन इतना सब होने के बावजूद सच्ची कलम न झुकती है, न रूकती है. चलती रहती है भले ही जान चली जाए. किसी पत्रकार की हत्या के मामले में कोई भी सरकार कुछ नहीं कर सकती भले ही अपराधी बाद में पकड़ में आ जाए, वह एक प्रक्रिया है. लेकिन वह पत्रकार सुरक्षा कानून तो बना ही सकती है. वर्तमान सरकार के मुखिया विष्णु देव साय ने पत्रकार सुरक्षा कानून की बात तो की है. उम्मीद है कि यह जल्द से जल्द बन जाएगा.