यह सूचना पढ़कर मुझे दुख हुआ। आपको भी होगा कि डाक विभाग ने रजिस्टर्ड प्रिंटेड बुक सेवा बंद कर दी है। सचमुच यह सस्ती थी। कैसे प्रकाशन व्यवसाय में फर्क पड़ेगा। पुस्तक भेजने के लिए लेखक-प्रकाशक इसी सेवा का उपयोग करते थे। लेकिन अब पुस्तक रजिस्टर्ड पार्सल से भेजे जाएंगी, डाकघर से पहले से अधिक लगेगा। मुझे पता चला है कि पहले एक सामान्य पुस्तक भेजने में पहले 30 रुपए लगते थे, लेकिन अब 57 रुपए लगेंगे। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है। शर्म आना चाहिए हमारी सरकार को। एक तरफ यह पुस्तक संस्कृत की बात करती है, दूसरी तरफ इस संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश कर रही है। कायदे से तो होना यह चाहिए कि हर छपी पुस्तक को भेजना और सस्ता हो। ?30 से भी कम। लेकिन सरकार को इससे कोई मतलब नहीं। इसकी बुद्धि और अधिक भ्रष्ट हुई हो सकता है ?30 की जगह ?60 लेने लग जाए।
फेसबुक के माध्यम से हम सब विरोध कर रहे हैं लेकिन क्या बहरी सरकार को सुन सकेगी? अगर सुनकर अपना निर्णय वापस ले सके तो बहुत अच्छी बात है। मैंने जब सोशल मीडिया में अपनी पीड़ा व्यक्त तो अनेक लोगों की सकारात्मक टिप्पणियां मिलीं। बात निकलती है तो फिर दूर तलक जाती है। उम्मीद करता हूं कि पूरे देश की पीड़ा का संज्ञान सरकार ज़रूर लेगी। यह जन विरोधी कदम है। इसे जल्द से जल्द से वापस लिया जाए। मेरी पीड़ा पर अपनी सहमति जताते हुए वरिष्ठ लेखक देवेंद्र दीपक जी ने सही कहा है कि “ज्ञान परम्परा की रक्षा की बात करने वाली सरकार का ज्ञान घातक निर्णय! और वह निर्णय भी चुपचाप। बजट के समय घोषण करती तो बात सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती ?। प्रधानमंत्री युवकों को पुस्तक पढऩे के लिए प्रेरित करते हैं, दूसरी ओर उनकी सरकार पुस्तक के डाक व्यय बढ़ाती है ?। यह निर्णय पुस्तक स़ंस्कृति विरोधी निर्णय है। निंदा करता हूं।” गौ भक्त फैज़ खान का सुझाव मुझे ठीक लगा कि साहित्यिक डाक पर तो विशेष सब्सिडी देकर बहुत सस्ते में ये काम करना चाहिए। घनघोर लापरवाही भी। सजग लेखक अरुणकांत शुक्ल ने बताया कि “डाक बांटने का काम ठेके पर दे दिया जा रहा है। रजिस्टर्ड और स्पीड पोस्ट को छोड़कर सभी डाक कूड़े के ढेर जैसी पोस्ट ऑफिस में पड़ी रहती हैं और फिर कबाड़ी को या फेंक दी जाती हैं।” कथाकार हरिप्रकाश राठी ने भी मेरा साथ देते हुए कहा कि “एक तरफ साहित्य को प्रतिष्ठित करने की बात हो रही है , दूसरी ओर हर वह कार्य किया जा रहा है जिससे साहित्य नेपथ्य में चला जाये। साहित्यिक पतन अंतत: सांस्कृतिक , सामाजिक पतन की पूर्व भूमिका नहीं तो और क्या है ? पोस्टल मूल्यों में बढ़ोतरी कोढ़ में खाज जैसी बात होगी।” रंगकर्मी जितेंद्र भइया ने अपनी पीड़ा कुछ यूँ व्यक्त की कि “दुनिया में आज तक कोई सरकार जन हितैषी काम करने वाली नहीं बनी, सबके सब धन को महत्व देते हैं। यही कारण है कि आज मानवता इंसानियत शर्मनाक स्थिति से भी ज्यादा नीचे जा चुकी है और दु:ख इस बात का है कि हम जिस संस्कृति संस्कारों पर गर्व करने की बात करते हैं उसी देश में सबसे ज्यादा मानवता इंसानियत का स्तर बहुत नीचे गिर चुका है और उसके पीछे सीधा सा कारण है हमारी बनाई हुई व्यवस्था जो अंग्रेजों की है, जिसके बारे में राजीव भाई ने बहुत कुछ बोला है। लेकिन कोई सरकार, कोई प्रधानमंत्री, कोई मुख्यमंत्री, कोई नेता इस पर बात ही नहीं करता। अब तो शर्म आने लगी है कि हम एक ऐसी सरकार को झेल रहे हैं जो अपने आपको राष्ट्रवादी कहती है जिसमें राष्ट्र का कहीं कोई अता-पता नहीं है। मैं अपने तो यहाँ इस सरकार के नुमाइंदों से कई बार मिला हूँ लेकिन किसी के चेहरे पर मैंने शिकन नहीं देखी कि गाय हर जगह मर रही है, हाँ इनसे हिंदू मुस्लिम करवा लो।