छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण जब हुआ तब समस्त प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण इस क्षेत्र के नए सिरे से विकास की उम्मीद जगी थी। राज्य बनने के बाद स्व अजीत जोगी ने प्रदेश के नव निर्माण की नीतियां बनाई, 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद अधोसंरचना, उद्योग, स्कूल, अस्पताल के निर्माण में तेजी आई। इसके साथ साथ प्रदेश में नक्सल हिंसा भी बढ़ी, जब प्रदेश विकास की दिशा में आगे बढ़ रहा था, तब नक्सली जनजातीय क्षेत्रों में विकास को अवरुद्ध कर रहे थे। इस कारण जनजातीय समाज ने नक्सल हिंसा के खिलाफ सलवा जुडूम शुरू किया। इससे बौखलाए नक्सली जो 2004 के बाद माओवादी हो चुके थे, हिंसा का तांडव मचाया। 25 मई 2013 को झीरम घाटी में माओवादियों ने कांग्रेस काफिले को विस्फोट कर उड़ाया और अंधाधुंध फायरिंग कर 28 कांग्रेस के नेताओं की जान ली। इनमें तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल भी शामिल थे। यह बेहद दुर्भाग्यजनक घटना थी इसके दोषियों को सजा मिलनी चाहिए थी लेकिन राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप में ऐसा हो न सका। अब इस घटना के 10 साल बाद एक बार फिर बस्तर में माओवादी राजनीतिक हत्या करने लगे हैं। इस मामले को भाजपा के अध्यक्ष अरुण साव ने टारगेट किलिंग कहते हुए सांसद में निष्पक्ष जांच की मांग कर दी है। इस मामले में सरकार और कांग्रेस पार्टी को जैसी गंभीरता और संवेदनशीलता दिखानी चाहिए वैसे दिख नहीं रही। प्रदेश प्रवक्ता भाजपा पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे, क्या ऐसी ही राजनीति कांग्रेस झीरम घाटी को लेकर नहीं कर रही? मुख्यमंत्री कह रहे भाजपा केंद्रीय एजेंसी से जांच करवा लें, यह कैसा बयान है? प्रदेश के मुखिया को निर्णय लेना चाहिए की इन घटनाओं की जांच किस एजेंसी से कराई जाय? ठीक है, इस साल के अंत में चुनाव होने हैं, इसलिए राजनीति खूब होगी लेकिन सरकार को राजनीति करने के बजाय मामले की गंभीरता को समझना चाहिए। माओवादी जब एक दल विशेष के नेताओं को निशाना बना रहे, तो ऐसी स्थिति में आगामी चुनाव में भाजपा और अन्य राजनीतिक दल निर्भय होकर चुनाव में काम कर पाएंगे? क्या इससे चुनाव प्रभावित नहीं होगा? ऐसा हुआ तो क्या निष्पक्ष चुनाव हो पाएगा? वैसे यह जांच का विषय जरूर है कि माओवादी केवल भाजपा के नेताओं की हत्या क्यों कर रहे हैं? क्या इसके पीछे भी कोई राजनीतिक साजिश तो नहीं है? अगर ऐसा है तो छत्तीसगढ़ की राजनीतिक दिशा भटक गई है।