Home इन दिनों वनवासी या आदिवासी विकास तो हो

वनवासी या आदिवासी विकास तो हो

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विधानसभा में जनजातीय विकास से जुड़े कुछ मामले चर्चा में आए। पहला विषय तेंदूपत्ता संग्राहकों को मिलने वाले लाभ से संबंधित था। भारतीय जनता पार्टी ने एक स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें वन क्षेत्रों में तेंदूपत्ता तोडऩे वाले श्रमिकों को समय पर मजदूरी नहीं मिलने का मुद्दा उठाया गया। इस मामले में यह भी जानकारी आई कि वर्तमान भूपेश सरकार ने तेंदूपत्ता तोड़ाई का पारिश्रमिक 2500 रुपए प्रति मानक बोरा से बढ़ाकर 4000 रुपए कर दिया है। लेकिन उससे तेंदूपत्ता तोडऩे वालों को जो लाभ मिलता था, वह कम हो गया है। विधानसभा में डॉ. रमन सिंह ने बताया कि 2017 में 17 लाख मानक बोरे तेंदूपत्ता का संग्रहण होता था और पारिश्रमिक व बोनस को मिलाकर 2017 में एक हजार 117 करोड़ रुपए का भुगतान हुआ, वहीं भूपेश सरकार ने वर्ष 2021 में 13 लाख मानक बोरा का संग्रहण किया और पारिश्रमिक व बोनस मिलाकर कुल 630 करोड़ रुपए का भुगतान किया। इस हिसाब से पारिश्रमिक बढ़ाने के बावजूद तेंदूपत्ता तोडऩे वालों को ज्यादा पैसा नहीं मिल रहा है। पिछले 4 वर्षों से प्रदेश की अर्थव्यवस्था की दूरी जनता के जेबों में अधिकाधिक पैसा डालने पर टिकी हुई है। भूपेश सरकार मानती है कि प्रति क्विंटल धान का पैसा राजीव गांधी न्याय योजना के तहत किसानों की जेब में जा रहा है, गोबर खरीदने का पैसा भी गांव के लोगों की जेब में जा रहा है, यह पैसा प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी है। दुनिया के एक बड़े अर्थशास्त्री थे कीन्स जिन्होंने लोगों के हाथों पैसा पहुंचाकर अर्थव्यवस्था बढ़ाने का सिद्धांत 1920 के दशक में दिया था। अब 2020 के दशक में यह सिद्धांत छत्तीसगढ़ में लागू हो रहा है। सवाल उठता है कि तेंदूपत्ता तोडऩे वालों की जेब में ज्यादा पैसा क्यों नहीं जा रहा है। विधानसभा में चर्चा के दौरान मंत्री कवासी लखमा ने इस बात पर आपत्ति की कि जनजातीय समुदाय के लिए वनवासी शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। हालांकि विधायक धर्मजीत सिंह ने स्पष्ट किया कि सरकार ने अपने जवाब में भी वनवासी शब्द का उल्लेख कर रही है। यह विषय जनजातीय समाज के बीच में बहुत तेजी से चर्चा में है कि उनके लिए वनवासी शब्द का प्रयोग न किया जाए। यही प्रश्न संविधान सभा में भी चर्चा के दौरान उठा था और आखिर में यह तय हुआ कि अनुसूचित जनजातीय शब्द का प्रयोग किया जाएगा। तब से लेकर आज तक शब्द भले ही बदल गए हों, लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले वनवासी हो या आदिवासी या जनजातीय इनकी आर्थिक स्थिति सुधर नहीं पाई है। शब्द बदल लेने से आर्थिक और सामाजिक स्थिति नहीं बदलती उस समाज को मुख्यधारा में जोडऩे के लिए संबंधित प्रयास की आवश्यकता है।