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नंदकुमार साय की नई राजनीतिक पारी

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भारतीय जनता पार्टी में संगठन में कुछ ऐसे नियम बनाएं हैं जो भारत की स्वतंत्रता के बाद की राजनीति की दृष्टि से हटकर है। एक निर्णय यह लिया गया है कि भाजपा में सक्रिय राजनीति करने की आयु सीमा 75 वर्ष तय कर दी गई है। इस आयु सीमा पार महत्वकांक्षा पाले अनेक भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के मन में उपेक्षा किए जाने की टीस है। कांग्रेस पार्टी सहित अनेक राजनीतिक दल भाजपा पर अपने वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हैं। ऐसा ही आरोप लगाकर छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ नेता नंदकुमार साय अपनी 50 साल की राजनीतिक यात्रा में भाजपा की गाड़ी को छोड़ कांग्रेस पार्टी की सवारी कर ली है। रविवार अचानक उनके इस्तीफे की खबर आई और अगले दिन सुबह मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और प्रदेशाध्यक्ष मोहन मरकाम की उपस्थिति में कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ले ली। इस निर्णय से कई तरह के राजनीतिक सवाल खड़े होते हैं। पहला तो यह कि साय के पार्टी छोडऩे से भाजपा को क्या नुकसान और कांग्रेस में शामिल होने से कांग्रेस को क्या फायदा मिलेगा। पहली बात यह कि नंदकुमार साय जिस पीढ़ी के राजनेता वे अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। दूसरी बात श्री साय ने अपना आखिरी लोकसभा चुनाव 2004 में लड़े थे। इसके बाद 2009 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था। इसका मतलब है कि नंदकुमार साय लगभग 19 वर्षों से चुनावी राजनीति से बाहर है. इस बीच नई पीढ़ी राजनीति और मतदाता के रुप में खड़ी हो चुकी हैं। इसलिए नंदकुमार साय की राजनीतिक पहचान लगभग लुप्तप्राय है, मतलब आगामी चुनाव में श्री साय के भाजपा छोडऩे और कांग्रेस में शामिल का कोई ज्यादा असर नहीं पडऩे वाला। इधर नंदकुमार साय ने पार्टी में उपेक्षा की बात कही है। पहली बात तो यह कि 2021 में 75 वर्ष पूरा कर लेने के बाद वे केवल मार्गदर्शक की भूमिका में हो सकते हैं। दूसरी बार 2020 से पहल इनकी संसदीय यात्रा 1977 से प्रारंभ होती है जब वे पहली बार विधायक निर्वाचित हुए। तब से लेकर 2016 तक वे लगातार चुनावी राजनीति के केंद्र में रहे। तीन बार लोकसभा के चुनाव और एक बार राज्यसभा के निर्वाचित हो चुके हैं। वहीं, तीन बार विधानसभा के लिए भी निर्वाचित हुए हैं। जितना श्रेय उनकी राजनीतिक यात्रा में उनको मिली जीत है, उतनी बार ही वे चुनाव भी हारे हैं। 1984, 1991 और 1998 में वे लोकसभा का चुनाव हारे हैं तथा 1980 और 2003 में विधानसभा का चुनाव हारे हैं। अब अगर उनके चुनाव लडऩे की यात्रा को देखे तो पार्टी ने उनको टिकट देने में कभी कोताही नहीं बरती। जैसे 1980 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद 1984 में लोकसभा का टिकट दिए, जिसे वे हार गए इसके बावजूद 1985 में विधानसभा का टिकट मिली। इसी तरह 1998 में लोकसभा का चुनाव हारने के बाद उसी साल विधानसभा का चुनाव लड़े और जीत कर आए। वे 2003 में अजीत जोगी से चुनाव हारे तो 2004 में उन्हें लोकसभा का टिकट मिला और जीतकर सांसद बने। इस प्रकार जिस पार्टी ने उनके राजनीतिक कद को महत्व दिया उसे अचानक छोड़ देना उनके लिए भी बहुत मुश्किल निर्णय रहा होगा.