Home बाबू भैया की कलम से सावधान; फिल्मों के सहारे छतीसगढ़ की साख ना घटे

सावधान; फिल्मों के सहारे छतीसगढ़ की साख ना घटे

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द केरला स्टोरी फि़ल्म के निर्माताओं ने फिर कमर कसी है। केरल स्टोरी से देश में एक अलग ही माहौल बनाने का आंशिक सफल प्रयास के बाद छतीसगढ़ के चुनाव के ठीक पहले द बस्तर स्टोरी नाम की फि़ल्म बनाने का निर्णय लिया है। निश्चित ही कुछ ऐसा दिखाया जाएगा जिसे देखने के बाद भाजपा की विपक्षी पार्टीयों पर इतिहास को तोड़ मरोड़ कर बताने का आरोप लगेगा। अपने तरीके व किसी के निजी एजेंडे पर नया नैरेटिव बनाया जायेगा। दोनों पक्षों के लोग फि़ल्म निर्माण की खबर मिलते ही अपनी अपनी बात कहने लगे हैं। एक का कहना है कि फि़ल्म रिलीज होने के साथ ही बड़े बड़े नेता टीवी के व अखबारों के माध्यम से इसे देखने की मुफ्त में प्रचार की शैली में अपनी बात रखने लगेंगें। जैसा द कश्मीर फ़ाइल के समय किया गया था।भाजपा के बड़े बड़े नेतागणों ने लोगों को फि़ल्म देखने की प्रेरणा दी। लोगों ने भीषण हिंसा, व न्यूड दृश्य भी बड़े चाव से देखा। अत्याचार व बलात्कार के दृश्य को भी राष्ट्र भक्ति की तरह देखा। कई तरीके होते हैं अपनी बात कहने के, दृश्य दिखाना जरूरी नहीं था। आप अपने गंभीर बयानों व भाषणों के माध्यम से भी अपनी बात जनता तक पहुंचा सकते थे। पर जब कोई प्रयास ,किसी बात को जनता के मानस पटल पर स्थापित करना का हो तो, यह नया तरीका एक दल ने निकाला है। यह कुछ हद तक सफल भी कहा जा सकता है। इन प्रयासों से हर चुनाव में बहुसंख्यक हिंदुओं को एक मंच पर लाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में पिछले दो लोकसभा चुनाव व विधानसभाओं के चुनाव में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण साफ दिखाई भी दिया। हिन्दू वोटों की मु_ी बंध गई और पांच उंगलियों की तरह विपक्ष बिखर गया। भाजपा समझ चुकी है कि प्रयोग सफल है। लगातार प्रयासों से वह इस मुहिम में लगी है। द कश्मीर फ़ाइल से रामसेतु के रास्ते चल कर यह रास्ता अब तक द केरल स्टोरी तक सफल ही रहा है। इतिहास बदलने की तैयारी करने के पहले जनता के मानस रूपी मैदान में यह प्रेक्टिस मैच शुरु हुआ है। इसी बहाने यह टटोला जा रहा है कि जनता के बीच हमारे नए इतिहास को कितनी स्वीकार्यता है। अभी तक पूरी स्वीकार्यता हिन्दू समाज में नहीं हो पाई है। लगातार जारी है। थोड़ा आदिपुरुष ने इस प्रयास को झटका जरूर दिया है। विवादित मुंतसिर ने मनोज के चोले में ना सिर्फ इनके प्रयासों को बल्कि हनुमान के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाने का गंदा खेल खेल दिया। जैसे ही फि़ल्म आई उसके पहले से ही शायद पूर्व निर्देश के आधार पर भक्तों ने इसका पूर्व प्रचार शुरु कर दिया। कहा प्रभुराम को देखने जरूर जाना है। ऐसी भीड़ उमड़ी कि निर्माता ने करोड़ों जेब के अंदर कर लिए। हींग लगे ना फिटकरी रंग……..? डायलॉग से विवाद उठा तो उसे बदल दिया गया,लोगों ने फिर देखा कि आखिर बदला क्या है। निर्माता की पौ- बारह हो गई,मालामाल हो गया। मामला सम्हाल लिया जाता पर इतने में मनोज के भीतर बैठे मुन्तशिर ने कहा हनुमान भगवान ही नहीं वे भक्त है। उनको हमने भगवान बनाया। इतना कहते ही विवाद के सोने में सुहागा चढ गया। अब तो पानी सर से ऊपर चला गया मजबूरी में पूरी ब्रिगेड को विरोध करना पड़ा। आदिपुरुष की सफल राजनैतिक योजना अपना काम नहीं कर पाई,बल्कि खेला बिगाड़ गई। अब द केरल स्टोरी के निर्माताआ ने मुफ्त की पब्लिसिटी मिलने की लालच में छतीसगढ़ के चुनाव का माहौल बदलने की रणनीति पर एक फि़ल्म बनाने पर काम तेजी से शुरू कर दिया है। आप एक बात समझिए कि एक फि़ल्म के प्रमोशन में निर्माता को करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाना होता है। मुफ्त में जब काम हो रहा हो,पूरी ब्रिगेड बिना कहे पहले से पूरी तैयार बैठी हो। निर्माता तो पहले ही करोड़ों बचा लेगा। सौदा घाटे का नहीं बेहद फायदे का है। फिल्मवाले की आंख में अर्जुन की तरह मछली तो नहीं , सिर्फ पैसा ही दिखाई देता है। उसके लिए वो कुछ भी बना सकते हैं। उन्हें स्टोरी में सच है या झूठ उससे कोई मतलब नहीं होता, बस पैसा दो, और पैसा वसूल की गारंटी हो। हुनर तो उनके पास है ही। अब केरल स्टोरी वाले निर्माता की नजर में अपने बराबरी भौगोलिक क्षेत्र वाले प्रदेश छतीसगढ़ का एजेंडा फिक्स हुआ है। वे द बस्तर स्टोरी बनाएंगे,प्रश्न है कि वे अगर नक्सल गढ़ के आतंक को दर्शाएंगें तो सबसे ज्यादा हिंसा 15 साल के राज में ही हुई है,क्या दिखाएंगें ? ताड़मेटला, बीजापुर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, भेज्जी(सुकमा), बुर्कापाल,किस्टाराम के साथ सबसे बड़ी घटना झीरम कांड में विपक्ष के क्रीमी लेयर के नेता समाप्त हो गए। ये सारी घटनाएं 15 साल के शासन काल में ही घटित हुई। क्या दिखाई जाएगी या उसमें अपना नैरेटिव निर्माता सेट करेगा ,यह देखने की बात होगी। वर्तमान शासन में घटनाएं रुक गई हों यह भी नहीं है बल्कि तुलनात्मक रूप से कम हुई है या कहें थमी है। यह जरूर कहा जा सकता है। अगर आदिवासी बालाओं के साथ पुराने राजशाही के दौरान और अब तक लगातार जो अमानवीय अत्याचार हो रहा है,उसको दिखाने का प्रयास हुआ तो निश्चित रूप से उसमें भी चर्चा 15 साल की भी की जाएगी। क्या नैरेटिव सेट करने निर्माता सुदीप्तो सेन स्टोरी बनाते हैं,यह तो फि़ल्म आने के बाद ही पता चलेगा। यह देखना है कि यह फि़ल्म विधानसभा या लोक सभा चुनाव के पहले रिलीज होती है और क्या प्रभाव डालती है। हमारे अपने आदिवासी क्षेत्र बस्तर को निर्माता द्वारा किस प्रकार दिखाया जाता है। अगर छतीसगढ़ की छवि धूमिल करने का प्रयास हुआ तो प्रदेश की जनता अपने प्रदेश की रक्षा के लिए तैयार रहे।