मानव समाज सदियों पहले जंगलों में निवास करता था। वह पूरी तरह से सभ्य नहीं हो सका था। निर्वस्त्र विचरण करता था। तब खाने-पीने के साधन विकसित नहीं हो सके थे। वैसी समझ भी मानव में विकसित नहीं हुई थी। तब वह पशु-पक्षियों को मार करके खा जाया करता था। पेट भरने के लिए उसके पास और कोई विकल्प नहीं था इसलिए किसी जीव का शिकार किया और उसे पका कर या कच्चा ही खा गयाम वह एक अलग किस्म का बर्बर युग था। लेकिन अब तो हम तथाकथित रूप से सभ्य हो गए हैं। कहने को सभ्य समाज में रह रहे हैं । इसलिए अब तो हमें इस तरह की जीव- हत्याओं से मुक्त हो जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज भी ऐसे अनेक लोग हैं, जो जीव-हत्या कर उसे खाना अपनी शान समझते हैं । कुछ लोगों ने बड़ी चालाकी के साथ जीव-हत्या को अपने धर्म-कर्म से भी जोड़ दिया है। और इस अपराध में समान रूप से सभी धर्म के लोग शामिल हैं। किसी एक धर्म का नाम लेने का मतलब नहीं, क्योंकि हम सब उनसे परिचित हैं। हमारे समाज के विभिन्न धर्म जाति में ऐसे असंख्य लोग हैं, जो किसी भी जीव की हत्या करने में कोई संकोच नहीं करते । इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरी आँखें भर गई हैं। मैं यह सोचकर व्यथित हो जाता हूँ कि आखिर मानव समाज और कितना नीचे गिरेगा? कितना पतित होगा? आखिर उसमें यह चेतना, संवेदना कब जाग्रत होगी कि गाय एक सुंदर प्यारा जीव है, जिसके दूध का सेवन हमअपनी पौष्टिक्ता के लिए जीवन भर करते हैं। गौ वंश को लोग बेरहमी से काट देते हैं। मैं गाय, बैल, भैंस सबकी बात कर रहा हूँ। लोग भेड़-बकरे को काट कर खा जाते हैं ।और भी छोटे-छोटे पशु-पक्षी हैं, उनको भी बड़े चाव से लोग खाते हैं। मैं कई बार जब रास्ते से गुजरता हूं तो किसी मीट शॉप को देख कर कुछ देर रुक कर वहाँ मीट खरीदते हुए लोगों के चेहरे को देखता हूँ। तब मैंने पाया है कि उनमें और सड़क के श्वान में कोई खास अंतर नहीं रह जाता। हमने देखा होगा कि कुत्ते खाने के या मांस के टुकड़े को बड़े चाव से देखते हैं कि जैसे ही मिले, उसे लपक कर खा ले। मांसाहार के मामले में अनेक लोग धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं ।बड़ी चालाकी के साथ एक जुमला उछालते हैं कि कोई क्या खाए, कोई क्या पहने; इस पर हमें टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। क्यों नहीं करनी चाहिए ?अगर आप किसी जीव की हत्या करके खा जाएंगे तो टिप्पणी तो करनी ही पड़ेगी। आप पहनने के नाम पर तार-तार फटी जींस पहनेंगे, बदन दिखाऊ टॉप पहनेंगे/पहनेंगी, तो लोग टिप्पणी करेंगे ही। जिस तरह से मांसाहार करने वाले उसे अपना अधिकार समझते हैं, तो उसके विरुद्ध टिप्पणी करने वालों को भी यह अधिकार है कि वह विरोध करें। उनकी टिप्पणी से व्यथित होने की ज़रूरत नहीं है।
लोक-जागरण बहुत ज़रूरी- मैं कह रहा था कि कितना बर्बर परिवेश हो गया है हमारा। आश्चर्य की बात यह है कि हिंसा करते हुए लोग समझ ही नहीं पाते कि वे हिंसा कर रहे हैं । हमारे यहां बलि-प्रथा रही है। कहीं-कहीं दुर्भाग्यवश आज भी जारी है । इसके विरुद्ध लोक जागरण करने की आवश्यकता है । अगर गाय, बैल, भैंस या बकरे की बलि लेने की शर्मनाक परंपरा है, तो उस परंपरा से लोगों ने मुक्ति भी पाई है। अगर इस परंपरा का अनुपालन करना ही है, तो उन जानवरों की छोटी-सी मूर्ति बनाकर या नारियल को प्रतीक बना कर भी तो बलि ली जा सकती है, ताकि आप की परंपरा बाधित न हो । लेकिन लोग ऐसा करते नहीं। वे सजीव पशुओं की हत्या कर देते हैं और फिर उसका भक्षण भी कर लेते हैं। हिंसा के पहले पशु रुदन भी करता है लेकिन उसे रुदन को हिंसक सुन नहीं पाते। पिछले दिनों 4 जून को जब 18वीं लोकसभा के नतीजे आए और तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष अन्नामलाई चुनाव हार गए ,तो प्रतिद्वंद्वी पार्टी डीएमके ने बीच सड़क पर एक बकरे के ऊपर अन्नामलाई का चित्र टांग कर उसे काटकर जश्न मनाया और लोगों को बकरा बिरयानी खिलाई। जिस किसी ने यह घटना देखी-पढ़ी, वह विचलित हो गया।
मैंने भी जब वह समाचार देखा तो कलेजा फट-सा गया। सोचने लगा कि कैसे कह दूँ, अभी हम सभ्य समाज में रह रहे हैं ! व्यक्ति विशेष के प्रति ऐसी नफरत अकल्पनीय है । आप किसी की हर पर खुशी मना सकते हैं, किसी की जीत पर मिठाई बांट सकते हैं, लेकिन इस अवसर पर सरेआम एक जीव की हत्या निसंदेह बड़ा पाप है। लेकिन यह पाप करते हुए करने वाला मानता ही नहीं कि वह पाप कर रहा है । ऐसा इसलिए होता है कि उसमें यह चेतना ही विकसित नहीं हो सकी है कि वह गलत कार्य कर रहा है । मैंने कुछ ऐसे वीडियो देखें जब एक मुस्लिम बच्चा बकरे से लिपटकर रो रहा है कि उसे मत काटना।वह दहाड़ बार-बार कर रो रहा है और लोग उसे बकरे से अलग कर रहे हैं । यह दृश्य देखकर मुझे बहुत संतोष हुआ कि उस बालक के मन में अभी मनुष्यता है। उस के मन में करुणा है। उसे पता है कि इस जीव की हत्या की जाएगी इसलिए वह रो रहा है । उसे रोते हुए देखकर के दूसरे हँस रहे हैं । यह अपने आप में वीभत्स दृश्य है। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसे दृश्यों से हमें दो-चार होना पड़ता है। हमारे जैसे लोग ऐसी विसंगति पर कलम तो चला सकते हैं लेकिन इस अन्याय को खत्म नहीं कर सकते। हम तो सिर्फ यही कामना करते हैं कि यह समाज हिंसा से मुक्त हो। धार्मिक प्रथा के नाम पर पशुओं की बली रोकी जाए। यह काम तभी हो सकता है, जब देश में एक ऐसी सरकार आए, जो तमाम तरह के खतरे उठाकर पशु बलि-प्रथा को पूरी तरह से अवैध घोषित कर दे। मेरे जैसे करोड़ों लोग उसी महान दिन की प्रतीक्षा में हैं।