छत्तीसगढ़ में लंबे दौर के बाद राजनीतिक रूप से भारी बदलाव के संकेत बार बार मिल रहे हैं। नेतृत्व की पीढियां जहां बदल रही हैं,वहीं काफी वर्षों से जमे राजनीतिज्ञों की जमीन पोली की जा रही है।सबको अपनी जमीन पर सम्हल कर चलने का संदेश दिया जा रहा है। बदलाव का यह दौर दोनों ही बड़े दलों में चल रहा है। भाजपा ने डॉ. रमनसिंह के नेतृत्व में 15 साल राज चलाने के बाद पांच साल सत्ता से दूर रह कर भाजपा ने शायद कुछ यही सबक लिया है कि किसी एक पर लंबे समय तक राज्य की राजनीति में भरोसा करना हाई कमान की राजनीति के हिसाब से उचित नही होता। जमे जमाए राज नेताओं के थोड़े थोड़े पर कतरते रहने चाहिए ,अन्यथा हाई कमान को कभी कभी राज्य के ये नेता भारी पड़ जाते हैं। छत्तीसगढ़ हो या मध्यप्रदेश अथवा राजस्थान-हरियाणा-उत्तराखंड-हिमांचल प्रदेश कहीं भी देखिए, हाई कमान ने नए नए विकल्प खड़े करने के बड़े-बड़े प्रयोग किये हैं। भले ही कहीं प्रयोग सफल तो कहीं बुरी तरह असफल रहे हों , लेकिन हाई कमान की यह मंशा तो हर जगह पूरी हुई है कि ,कोई स्थाई छत्रप प्रदेशों में अब दिखना कम हो गया है। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर,मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, हमारे छत्तीसगढ़ में डॉ. रमनसिंह के साथ अन्य राज्यों में इस तरह के सफल प्रयोग हो चुके हैं।इसके पीछे हाई कमान की मंशा क्या है ,यह तो पता चलना मुश्किल ही नहीं नामुमकीन सा है। पर एक बात समझ में जरूर आई है ,कि हाई कमान शायद किसी राज्य में किसी को जम कर रहने नहीं देना चाहता ,ना ही वह किसी को प्रदेशों में स्थाई छत्रप बनने का मौका देना चाहता। अभी हाल एक बडा उदाहरण हमारे प्रदेश में और देखने को मिला। बृजमोहन अग्रवाल जो एक बेहद लोकप्रिय नेता हैं। उन्हें विधायक बनने टिकट दिया वो जीत भी गए। मंत्री भी बनाया गया। अचानक संसद चुनाव लडऩे का फरमान आ गया। भाजपा हाई कमान के तासीर के अनुसार कहा जा सकता है कि इनकार करना विद्रोह माना जाएगा। बृजमोहन के सामने धर्म संकट की स्थिति ,एक तरफ दिल से चाहने वाली जनता के बीच रहने की तीव्र इच्छा दूसरी तरफ हाई कमान का फरमान। वो जनता जो छात्र जीवन से ही उन्हें सर आंखों पर बैठा रही है। 6 बार विधायक। वो भी एक ही क्षेत्र रायपुर से। दक्षिण सीट का अगाध प्रेम का लम्बा सिलसिला। सामने जो भी प्रतिद्वंदी आया धराशायी हुआ। प्रदेश भर में खासी पहचान। बृजमोहन से मोहनभैया -बिरजू भैया- मोहन बनने तक के सफऱ के सब साथी। बडा ही भावुक समय। अंतत: फैसला हुआ संसद चुनाव लडऩा है। लड़े और आशा के अनुरूप जबरदस्त ऐतिहासिक जीत भी मिली,लोकप्रियता का चरम पैमाना भी दिखाई दिया। प्रदेश से जाने का गम लेकिन भैया केंद्रीय मंत्री बनेंगें की थोड़ी खुशी। सारे सपने धरे रह गए। मंत्री पद उनसे कहीं जूनियर तोखन साहू को मिला। वापस प्रदेश आये तो विधायक का पद छोडऩे का दबाव, विधायकी से इस्तीफा के बाद पहली ही बैठक में मंत्री पद से इस्तीफा ले लिया गया। मान-अपमान क्या हुआ समझ में आया नहीं,पर बिदाई के समय निकले आंसू अपनी कहानी खुद ही कह गए ,समझने वालों ने समझ लिया कि क्या हुआ है।
रामविचार नेताम,केदार कश्यप,दयालदास बघेल पुराने चेहरे पद पर आये जरूर पर शेष अधिकांश नए चेहरों को ही अधिक महत्व वर्तमान सत्ता में दिया गया है। महत्वपूर्ण विभागों का बटवारे में भी बाजी नए चेहरों के हाथ लगी है। नेतृत्व की बागडोर तीन से चार नए चेहरों के हाथ आ गयी है। इन लोगों के लिए जो एकमात्र अड़चन राजनैतिक रूप से समझी जा रही थी ,उसे दिल्ली की राह दिखा दी गई है।अब सत्ता की पूरी बागडोर नए नेतृत्व के हाथों में है। डॉ. रमनसिंह देश-प्रदेश के एक कद्दावर नेता ,उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया। भले ही उनकी सीधी राजनीति में दखल ना दिखाई दे रही हो,पर उनके 15 साल के सरकार चलाने के दीर्घ प्रशासनिक अनुभव की अनदेखी कोई नहीं कर सकता। इसीलिए विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए भी उनकी उपयोगिता प्रदेश में बनी हुई है। कांग्रेस की तरफ देखें तो छत्तीसगढ़ की सत्ता गवानें के बाद भी भूपेश बघेल की पूछ परख हाई कमान में बनी हुई है। हाई कमान उन्हें उसी तरह महत्व दे रहा है ,जैसा देता आया है। सरकार जाने के बाद सब जानते और कहते भी हैं कि भूपेश बघेल को संगठन चलाने की जितनी महारत हासिल है उतनी सरकार चलाने में साबित नहीं हो पाई। दिल्ली संगठन में उन्हें बड़ा स्थान दिया जा सकता है। इस तरफ देखें तो राजनांदगांव में चुनाव हारने के बाद उनमें हताशा भले ही दिखाई ना दे रही हो। जिन लोगों ने धोका दिया उसकी कसक तो उनके दिल में जरूर होगी। इधर चुनाव के पहले चार छत्रप छत्तीसगढ़ में कांग्रेस में थे। भूपेश बघेल , टीएस सिंहदेव,.डॉ. चरणदास महंत , ताम्रध्वज साहू। अब चर्चा चरणदास महन्त की अधिक हो रही है ,कहा जा रहा है कि उनका राजनैतिक कद हाई कमान के दर पर पहले से थोड़ा ज्यादा बड़ा हो गया है। कोरबा से उनकी धर्मपत्नी ज्योत्सना महंत की जीत ने उन्हें यह सम्मान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भी कि चारों छत्रपों का कद कहीं से हाई कमान के पास कम नहीं हुआ है। थोड़ा कुछ जरूर फर्क पड़ा है। यह भी कि महंत की पूछ परख कुछ ज्यादा ही दिखाई देगी, ऐसा राजनैतिक जानकारों का कहना है। संगठन के बारे में कहा जाए तो कांग्रेस का छत्तीसगढ़ में आज का संगठन उतना मजबूत नहीं दिखता जितना मजबूत वो महंत व भूपेश बघेल की अध्यक्षता में हुआ करता था। कुछ यह भी कहा जा सकता है कि मोहन मरकाम के समय काम भले ही स्मूथ चल रहा दिखता था,पर संगठन जैसा उन्हें सौंपा गया वैसा ही चला पाए। कुछ आगे बढा हो ऐसा परिलक्षित नहीं हुआ। गुटबाजी अवश्य बढ़ गई थी। कुल मिला कर दोनों पार्टी में साफ दिखाई देने लगा है कि यह बदलाव का दौर है। पुराने चेहरे किनारे होंगें।उनका क्या उपयोग होगा यह समय पर ही पता चलेगा। नए चेहरे मुख्य धारा में प्रवेश करेंगें। पुराने चेहरों ने अपने दौर में अपना नाम चमकाया। अब बारी नए चेहरों की है। यह साफ दिखाई दे रहा है कि ताजी बयार बहने का समय आ गया है। तीसरी लाइन तक के कार्यकर्ता उत्साहित हैं। दरी उठाने वाले कार्यकर्ता के चेहरे पर भी कुछ हल्की सी चमक देखी जा सकती है।