Home बाबू भैया की कलम से जीवन की जगह सीखा मृत्यु का पाठ, ये कैसा सत्संग

जीवन की जगह सीखा मृत्यु का पाठ, ये कैसा सत्संग

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जीवन जीने की कला सिखाने हो रहे बाबाओं के सत्संग में यदि 116 लोगों का जीवन समाप्त हो जाए तो इसे क्या समझा जाए। ये बाबा जीवन जीना सीखा रहे हैं या मरना। प्रचार- प्रसार में लाखों रुपये खर्च किये जाते हैं। पोस्टरों के माध्यम से अपनी महानता व उत्कृष्टता का बखान करने वाले बड़े बड़े होर्डिंग व पोस्टरों से पूरा शहर व प्रदेश को पाट दिया जाता है। इस प्रकार किये जाने वाले भव्य आयोजनों में सुरक्षा के क्या इंतजाम होते हैं। कुछ हुआ तो जिम्मेदार कौन होगा यह स्पष्ट नहीं होता। 116 लोगों जिनमें अधिकांश माताएं,बहने थी असमय काल कलवित हो गए। जिम्मेदार कौन है,यह बताने में शासन-प्रशासन-पुलिस प्रशासन अक्षम साबित हुआ है। बाबा के लिए सेवादारों द्वारा रास्ता बनाने की गई धक्का मुक्की के फलस्वरूप ,यह बड़ी घटना हुई। कीचड़ वाले असुरक्षित स्थान पर आयोजन था। कारिंदों की धक्का मुक्की के कारण भगदड़ मची। लोग भागे , महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। बुजुर्ग महिलाएं धक्का मुक्की सहन नहीं कर पायीं। फिसलन में फिसल कर गिरी और भागती भीड़ ने अपने पैरों से 116 जिंदगियों को रौंद दिया। किसी की मां,किसी की बहन,किसी की घरवाली,किसी का रिश्तेदार जो पैरो तले आया दुनिया से चला गया। साथ ही सैकड़ों परिवार को बिखेर गया। गए थे जीवन का ज्ञान प्राप्त करने,मौत गले लगा कर निर्जीव घर लौटे। हाहाकार मचा, लेकिन इन सब बातों से बाख़बर होते हुए भी बाबा वहां से भाग निकले। यानी सम्मेलन स्थल से गायब हो गए। घटना घट गई तब बाबा की असलियत अखबारों ने बयान करनी शुरू की। नारायण हरि उनका असली नाम है वे बाबा के नाम मशहूर होने की मार्केटिंग करके प्रवचन करने के पहले यूपी की पुलिस में 18 साल सेवाएं दे चुके हैं। भोले बाबा के नाम से प्रसिद्धि पाने के पहले उनका असली नाम नारायन सरकार उर्फ सूरजपाल जाटव था। वे यूपी के एटा के रहने वाले हैं। 17 साल पहले नौकरी से वीआरएस लिया। सत्संग शुरू कर दिया, साथ में अपनी पत्नी को भी मंच से जोड़ लिया। अनुयायियों में अधिकांश लोग ओबीसी,एसटी,एससी वर्ग के लोग अधिक है। संख्या में धीरे धीरे अनुयायी लाखों में पहुंच गए। हर महीने के पहले मंगलवार को प्रवचन शुरू हो गया। लाखों खर्च होने लगे। स्पॉन्सर भी मिलने लगे। सत्संग की सारी व्यवस्था सेवादार सम्हालते हैं। हाथरस के आयोजन में 12 हजार सेवादार लगे थे। व्यवस्था वे जनता की करते तो यह घटना शायद नहीं घटती। सेवादारों ने जनता की जगह बाबा की व्यवस्था पर ध्यान दिया। जनता को भगवान के भरोसे छोड़ दिया। सेवादारों ने खुद ही भक्तगणों के बीच बाबा के लिए सुरक्षित रास्ता बनाने जनता से धक्का- मुक्की की। फलस्वरूप यह गंभीरतम घटना घट गई। एक पुरुष व एक मासूम बच्चे के अतिरिक्त मरने वालों में सभी महिलाएं थी। भक्ति का यह जुनून इनके भरे पूरे परिवार को भारी पड़ गया। घटना के बाद जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों से पूछा गया। एसडीएम व पुलिस के बयान से ही पता चल जाता है कि आयोजन को हल्के ढंग से लिए गया था। एसडीएम ने कहा कि 50 हजार भीड़ जुटने की बात कही गई थी। 80 हजार भक्तगण पहुंच गए। स्थानीय पुलिस प्रशासन ने कहा कि हमें आयोजकों से कार्यक्रम का जो पत्र मिला ,उसमें भीड़ का कालम खाली था। यूपी के सीएस ने एक कदम आगे जाकर कहा कि 80000 लोगों की अनुमति थी,लेकिन अधिक भीड़ शामिल हुई। इन बयानों की जद में ही सोच सकते हैं कि कितना विरोधाभाष है। एसडीएम ने कहा, 50 हजार की भीड़ आएगी बताया गया था। थाने ने कहा भीड़ की संख्या का कालम ही खाली था। यूपी के सीएस ने कहा 80 हजार की अनुमति थी, उससे ज्यादा लोग आ गए। पुलिस ने खाली कालम की जानकारी आयोजकों से क्यों नहीं ली। एसडीएम व सीएस की बातों में इतना विरोधाभाष क्यों है। यह जांच का विषय हो सकता है। घटना की जानकारी होने के बाद भी बाबा वहां से भाग क्यों गए। इस विषय पर एक बयान तक जारी नहीं किया। दिन में 1.30 बजे घटना घटी उसके बाद से बाबा सामने क्यों नहीं आये। भीड़ उन्हें देखने सुनने भर के लिए इक_ा हुई थी। जीवन जीने की कला सिखाते सिखाते मृत्यु का पाठ पढ़ा कर बाबा गायब हो गये। सत्संग के आयोजक मानव मंगल मिलन सद्भावना सामिति की कितनी जिम्मेदारी है , यह तय होना चाहिए।जांच के समय के लिए यह प्रश्न लाजिमी है। इन सारी बातों का जवाब मिलना ही चाहिए।
इन आयोजनों का दूसरा पक्ष भी देखा जाना चाहिए। पहले हम सब देखा करते थे, कि गली मोहल्लों में ऐसे आयोजन हुआ करते थे। छोटे छोटे हाथ से लिखे पोस्टर लगा दिए जाते थे। भक्तगण सुविधानुसार भजन या सत्संग सुनने आया करते थे।मोहल्ले के लोग ही चंदा करके खर्च उठा लेते थे। अपवाद छोड़ कोई स्पॉन्सर नहीं होता था। अब बाबाओं की जिस प्रकार से मार्केटिंग की जा रही है। इसके लिए लाखों की राशि खर्च करने से गुरेज नहीं होता। बड़े बड़े धन्ना सेठ जिनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि भी आप खोजें तो साफ हो जाती है। धर्म की राजनीति के लिए यह बड़े आयोजन करने लगे हैं। आयोजन क्रमश: छोटे से कब धीरे धीरे भव्य रूप धारण कर लिए समझ नहीं आया। इतनी भव्यता क्यों बनाई गई। इसको समझना काफी शोध करने का विषय है। फिर इन बाबाजी के तो ओबीसी,एसटी,एससी वर्ग के अनुयायी अधिक संख्या में हैं। यही राजनैतिक दलों व संस्थाओं के आकर्षण का विषय है। जहां शहद होगा वहीं चीटियां तो होंगी ही। खुद कुछ राजनैतिक दल इसमें साफ जुड़े हुए दिखाई भी दे जाते हैं। कुछ अप्रत्यक्ष रूप से अपने पूंजीपति समर्थकों के माध्यम से जुड़े हैं। आयोजन भव्य हो, खूब भीड़ जुटे। यह प्रयास उनका होता है। एक बार में ही धर्म के आख्यान के बीच अपने दल की भावना को जनता के बीच बाबाजी के द्वारा प्रकट कर दिया जाता है। वह भी बड़ी सरलता से। बाबाओं की पूछ परख इन दिनों बढ़ी हुई है। अनेक राज्यों में तो इन्हें राज्य अतिथि का दर्जा भी दिया जा रहा है। आयोजनों में बेहिसाब राशि खर्च की जाती है। इस राशि का कितना बडा हिस्सा इन संत -बाबाओं को मिलता है, कितना आयोजकों के हिस्से में,यह आम आदमी की समझ में नहीं आ सकता। आम आदमी तो बस भक्ति की भावना में डूब कर जीवन जीने की कला सीखने जाता है। यह भी कि भारत की जनता 15-20 दिनों से ज्यादा किसी भी बड़ी से बड़ी घटना को भूल जाती है। इसे भी भूल जायेगी। लेकिन जिम्मेदारों की जिम्मेदारी है कि इस घटना को भूले नहीं, और इसमें ऐसी कड़ी कार्यवाही दोषियों पर हो, जो भविष्य में आयोजकों व बाबाओं के लिए नजीर बने। कोई कितना भी ताकतवर या बाहुबली हो ,उसे बक्शा नहीं जाना चाहिए। यह मामला यूपी का है जहां अनेक मुद्दों पर नजीर प्रस्तुत करने वाले मुख्यमन्त्री हैं। उनसे भी भारत के लोगों को बड़ी उम्मीद है।