कल ‘इंटेलेक्चुअल फोरम ऑफ़ छत्तीसगढÓ नामक संस्था के शहर के कुछ राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों के बीच साहित्य में लोक विमर्श विषय पर मुझे बोलना था. मैंने विस्तार के साथ अपनी बात रखी और चिंता व्यक्ति की कि साहित्य में अब धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है. साहित्य का पूरा ध्यान अब नागर विमर्श तक सिमट गया है. लोगों का गांव से मोह भंग होता जा रहा है. गाय की जगह लोग कुत्ता पालने में रुचि रखते हैं. गाय की जगह ‘गेÓ ( समलैंगिता ) पर बात करना आधुनिकता हो गई है. गांव में पहले हर दूसरे बच्चे के नाम के आगे पीछे राम शब्द जुड़ा रहता था लेकिन अब वह दौर भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. हमारा भारतीय समाज लोकानुरागी रहा है. लोक उसकी आत्मा का हिस्सा रहा. लोक के आलोक में ही सदियों से उसका जीवन दीप्त होता था. लेकिन धीरे-धीरे शहरीकरण ने लोक को हाशिये पर धकेल कर उसे केवल लोग बना कर रख दिया. इसका दुष्परिणाम समाज भोग रहा है. हम सब जानते हैं कि लोक का भोजन अमृततुल्य रहा है, क्योंकि उसमें शुद्धता की गारंटी हुआ करती थी. और आज भी बहुत हद तक वहाँ शुद्धता बची हुई है. लेकिन इसके ठीक विपरीत अनुभव यही बताता है कि शहरी भोजन अब जहर बनता जा रहा. सांसों में घुलता विषैला धुआँ और खानपान में मिलावट शहरी जीवन का साइड इफेक्ट हो गया है. लोक में रहने वाला समाज सहज रूप से शुद्ध प्रकृति के साथ रहता है. चतुर्दिक पसरी हरियाली और नदी-तालाब की समृद्धि तन-मन दोनों को स्वस्थ बनाए रखती है.जबकि कभी प्रकृति के संग रहने वाला नागर समाज अब धीरे-धीरे प्रकृति मां का दुश्मन होता जा रहा है. सभी जीव-जन्तु प्रकृति के साथ मज़े से रहते हैं. तथाकथित विकास के नाम पर मनुष्य पेड़ काट रहा है. वह एक तरह से ‘कालिदासÓ बना हुआ है. जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काटे जा रहा. लोग नदी को प्रणाम तो करते हैं और तुरत प्रदूषित करने लगते हैं. कुछ तो इतने चेतना-शून्य हो जाते हैं कि उनके कारखाने का दूषित जल सीधे जीवनदायिनी नदी में समाता रहता है. सिस्टम भी इसकी अनदेखी करता है. मनुष्य सुंदर विशाल पहाड़ों को खोद रहा है.उसके दुष्परिणाम भी भोग रहा है. फिर भी वह सबक ग्रहण नहीं करता. पहले कहावत थी कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है. अब गीदड़ की जगह मनुष्य शब्द का प्रयोग करना चाहिए. धीरे-धीरे अपने ही गांव से मनुष्य का मोह भंग हो रहा है. कोगों को गांव की खेती-बाड़ी छोड़कर शहर में आकर चौकीदारी करना मंजूर है, लेकिन गांव में रहना गवारा नहीं. गांव में गाय पालने वाला व्यक्ति शहर आकर कुत्ते पालने लगता है. यह अजीब-सा बदलाव है. जैसे गांव से गंवईपन गायब होता जा रहा है, उसी तरह साहित्य से भी लोक-विमर्श धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है. उसकी जगह महानगरीय जीवन और उसके नाना संक्रमण केंद्र में आते जा रहे हैं. कहानी, कविताओं में, उपन्यासों में गांव की सोंधी खुशबू गायब है. हमारा सांस्कृतिक बोध भी खत्म होता जा रहा है. संस्कृति अब उपेक्षित- बहिष्कृत शब्द हो गया है. संस्कृति कोई कठिन शब्द नहीं है. जो श्रेष्ठ है, वही संस्कृति है. जिसमें परिष्कार की भावना है. जो उदात्त है. जो सकारात्मक है. जो हमें बेहतर मनुष्य बनाए रखती है, वह संस्कृति है. जो हमें संस्करवान बनाए, वह संस्कृति है. साहित्य में इस तरह के सांस्कृतिक मूल्य आने चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अब जो नया साहित्य रचा जा रहा है, उसमें अप-संस्कृति की बहुलता है. लिव-इन रिलेशनशिप है, समलैंगिकता है,नग्नता की खुली वकालत है. बार-बार यह भी बताया और एक हद तक समझाया भी जा रहा है कि औरत की देह उसकी अपनी है. उसे आजादी है कि वह उसका चाहे जैसा इस्तेमाल करे. नैतिकता अब आउटडेटेड हो गई है. अब जो जितना अधिक अनैतिक है, वह उतना जिय़ादा आधुनिक है. यह अजीब किस्म की उलटबासी है. अपनी सनातनी परंपरा का बोध ही खत्म हो गया है.
जैसे-जैसे हम लोक विमर्श या लोक जीवन से दूर होते जा रहे हैं, लोक ही क्या अपने अतीत से ही हमारा विश्वास उठता जा रहा है. समाज में आत्महीनता या पतन आ रहा है, और यह साहित्य में भी स्वाभाविक रूप से आ रहा है. हम प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ते हैं,तो उसमें लोक-विमर्श दिखाई देता है. परंपरा के प्रति लगाव भी नजर आता है. उनकी ‘पूर्व संस्कारÓ जैसी कहानी की कहीं चर्चा नहीं होती. वेद व्यास जी का लोकप्रिय कथन है, ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानाम सर्वदर्शी भवेन्नर:Ó लोक जीवन को प्रत्यक्ष रूप से देखे बगैर हम मानव जीवन को ठीक से नहीं समझ सकते. इसलिए हमारे विमर्श के केंद्र में लोक- दर्शन होना चाहिए. लेकिन भारतीय समाज धीरे-धीरे इतना आधुनिक होता जा रहा है कि उसे लोक की बात करना पिछड़ापन लगने लगा है. लोक-संस्कृति, लोक-कला, लोक-वाद्य, लोक की वेशभूषा, लोक-पर्व, लोक के उत्पाद : इन सबसे जैसे मोह भंग होता गया है. धोती-कुर्ते वाला व्यक्ति हमें दूसरे लोक से आया हुआ प्राणी लगता है. साड़ी में लिपटी हुई स्त्री हमें पिछड़ी हुई प्रतीत होती है. गाय को उपेक्षित करने वाला व्यक्ति जब विदेशी नस्ल का कोई कुत्ता पालता है, तो उसे लोग ‘एनिमल लवरÓ कहने लगते हैं. गोया गाय एनिमल ही नहीं है. यह तथाकथित परिवर्तन उत्थान है या सामाजिक पराभव, इस पर अब बात करना बेमानी है. लोग अपनी सुंदर परंपराओं से, संस्कृतियों से और कुछ बेहतर शाश्वत मूल्यों से दूर होते चले जा रहे हैं. लगता है, यह लोक विमुखता अब बढ़ती ही जाएगी.