छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है क्योंकि उत्तरी पाट और दक्षिण के पठार के बीच स्थित मैदानी क्षेत्र में मुख्यत: धान की फसल ली जाती है। राज्य निर्माण के बाद पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी मानते थे कि धान की खेती करने वाला क्षेत्र आर्थिक रुप से पिछड़ा हुआ होता है। 2006-07 में जब दूसरी हरित क्रांति के तहत पूर्वोत्तर राज्यों को केंद्रित किया गया इसके बाद धान के उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गई। 2006-07 में प्रदेश में धान का कुल उत्पादन 54 लाख मीट्रिक टन होता था और प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन, 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास है। धान का उत्पादन बढ़ते-बढ़ते 2016-17 में 01 लाख 31 हजार टन को पार कर गया। जैसे-जैसे धान का उत्पादन बढ़ा वैसे-वैसे सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद भी बढ़ती गई। 2016-17 में लगभग 70 लाख टन धान की खरीदी की गई थी। 2018 के बाद जब से भूपेश बघेल की सरकार आई है और किसानों को धान की कीमत के साथ राजीव गांधी न्याय योजना के तहत् 9 हजार रुपए प्रति एकड़ की सब्सिडी मिल रही है। धान उत्पादन के प्रति किसानों का आकर्षण बढ़ गया है और यह लगातार बढ़ रहा है। इस खरीफ मौसम में मंगलवार को धान खरीदी का आंकड़ा 100 लाख टन को पार कर गया है। इसका मतलब है कि 100 लाख टन से अधिक धान की पैदावार हुई होगी। एक तरफ सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा किसानों को पैसे दे रही है वहीं धान खरीदी के बाद लगभग 92 लाख टन धान की मिलिंग कराकर केंद्र सरकार को दे दिया जाएगा। लेकिन बाकी बची धान और खरीदी की पूरी प्रक्रिया में सरकार को सैकड़ों करोड़ का नुकसान होता है। दूसरी ओर प्रदेश के 70 प्रतिशत छोटी और लघु किसानों को भी धान की बढ़ी हुई कीमत मिलने के बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा है। धान उत्पादक किसानों को चाहिए कि वे अन्य फसल भी लें लेकिन इसके लिए सरकार को भी धान के इतर फसल लेने वालों किसानों को विशेष सहयोग करना होगा। अच्छी कीमत की चाह में किसान कोदो, कुटकी, मोटे अनाज, दलहन और तिलहन को छोड़कर केवल धान का उत्पादन कर रहे है। इससे कृषि उत्पादन का संतुलन बिगड़ रहा है और किसान व राज्य दोनों को लंबी दूरी तक फायदा नहीं मिलने वाला है। समय रहते सरकार को धान खरीदी में रिकॉर्ड बनाने के बजाय प्रदेश की कृषि को संतुलित और आर्थिक स्थिति को समृद्ध करने वाली नीति बनानी चाहिए।