हमारा समाज श्रद्धा और अंधश्रद्धा के अंतर्द्वंद में सदियों से फँसा हुआ है। और जब तक यह दुनिया है, यह सिलसिला भी चलता रहेगा। यह बहुत स्वाभाविक बात है कि अगर हमारे सामने कोई चमत्कार प्रस्तुत हो जाए, तो हमारी श्रद्धा उसके प्रति बढ़ जाती है। बेहद सामान्य और नादान किस्म के लोग सामने वाले को भगवान ही समझने लगते हैं, और यह भूल जाते हैं कि सामने वाला उनकी तरह हाड-मांस का पुतला है। वह कोई ईश्वर नहीं है। सर्वज्ञ नहीं है। त्रिकालदर्शी नहीं है । कोई मनुष्य ऐसा हो ही नहीं सकता। लेकिन अंधश्रद्धा के वशीभूत हो कर वह उसका न केवल भक्त हो जाता है वरन एक कदम आगे बढ़कर अंधभक्त भी हो जाता है और उसका नि:शुल्क प्रचारक बन जाता है। फिर अपनी ओर से कुछ नई-नई बातें जोड़ करके उसका महिमामंडन करने लगता है। हम सब को यह समझ लेना चाहिए कि किसी के मन की बात जानकर उसे जस-का-तस बता देना या किसी का नाम और समस्या क्या है, उसको बताना चमत्कार नहीं है। यह दरअसल एक पारम्परिक कला है और इसे निरंतर अभ्यास से सिद्ध भी किया जा सकता है। इसे हम दिमाग को पढ़ लेना अथवा माइंड रीडिंग कहते हैं। दीश में कुछ बाबा, शास्त्री या धर्मगुरु इस कला के पारंगत हैं। यह और बात है कि वे कहते हैं कि उन्हें भगवान की कृपा से सब पता चल जाता है और उसके आधार पर वे मन की बात समझ कर कागज पर पहले से ही लिखकर रख लेते हैं। पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर इसी मुद्दे पर चर्चा हो रही थी। तब एक महिला जादूगर ने महिला टीवी एंकर से कहा कि आप अपने मन में किसी भूली-बिसरी सहेली का नाम सोच लीजिए। एंकर ने वैसा ही किया। उस महिला जादूगर ने एंकर द्वारा सोचा गया नाम स्लेट पर पहले से लिख रखा था, जिसे सबने देखा। यह चमत्कार ही लगता है लेकिन यह माइंड रीडिंग की ही कला है। ऐसा बहुत से लोग करते रहते हैं मगर वे बाबा नहीं हैं। ऐसे कुछ वीडियो यू-ट्यूब में दिख जाएंगे। इस विषय की किताबें भी उपलब्ध हैं। बहुत पहले मेरे एक मित्र ने दिल्ली की घटना बताई थी, जिस में सड़क किनारे मजमा लगा कर चमत्कार दिखाने वाले व्यक्ति ने एक सज्जन की ओर इशारा करते हुए कहा, इनका नाम रामलाल है और ये रायगढ़ में रहते हैं। उसकी दोनों बात सही थी। ऐसा बताने वाला व्यक्ति कोई महामानव या कोई चमत्कारी पुरुष नहीं था। अगर ऐसा ही होता तो फुटपाथ पर चंद पैसों के लिए मज़मा नहीं लगाता। बहुत से जादूगर चमत्कार दिखाते रहते हैं। उनको देख कर हम तालियां बजाते हैं मगर उसकी पूजा नहीं करने लगते। यह जो पूजा करने की प्रवृत्ति है, यही खतरनाक है।व्यक्ति-पूजा ही हमें धीरे-धीरे अंधभक्त बना देती है। और हम कब विवेकशून्य हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। मैं चकित हो जाता हूँ, जब लोग अपने-अपने ईश्वर की शरण में न जाकर किसी दरबार में, किसी बाबा की शरण में जा कर उनसे याचना करते हैं कि बाबा! हमारी समस्याओं को दूर कर दीजिए। यह देख बड़ी हँसी आती है कि जिस हिंदू समाज में तैंतीस कोटि (यानी तैंतीस प्रकार के) भगवान विराजमान हों, जिनकी अनादि-काल से हम पूजा-अर्चना कर रहे हैं, क्या वे प्रभु हमारी समस्या का निवारण नहीं कर सकते ? क्या उन तक पहुँचने के लिए हमें किसी बिचौलिए या बाबा की शरण में जाना पड़ेगा? इसका मतलब साफ है कि हमारी आस्था अभी भी डगमगाई हुई है । और वह ईश्वर पर नहीं, कुछ व्यक्तियों पर टिक गई है। इसलिए मैं कहता हूँ, हमें केवल अपने-अपने आराध्य देवताओं पर भरोसा करना चाहिए। जो बाबा चमत्कार दिखाकर लोगों के रोगों को ठीक करने का दावा करते हैं, उनसे बचने की जरूरत है। अगर कुछ बाबा इतने ही चमत्कारी हैं, तो वे कोरोना जैसी महामारी या अन्य संकटों से मुक्ति क्यों नहीं दिला पाते? इस पर हमें विचार करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि इक्का-दुक्का मामले में वे चमत्कार भले ही दिखा दें, मगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में कुछ नहीं कर सकते। अगर हम ईश्वर की सत्ता पर भरोसा करते हैं तो हमें सिर्फ उसी पर एकाग्र होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में एक जगह किसी पात्र के माध्यम से कहते भी हैं, होईहे वही जो रामरचि राखा, को करि तरक बढ़ावे साखा। जो होना है, वह तो होकर रहेगा इसलिए हमें उन लोगों के पीछे नहीं भागना है, जिन्होंने अपने धर्म की दुकानें सजा कर रखी हैं। मैं दुकान इसलिए कहता हूँ,कि उन स्थलों में बाबा तगड़ी कमाई करते हैं। वे माया मोह से मुक्त होने की बात करते हैं, मगर जब भक्त उनसे आग्रह करते हैं कि आप हमारे शहर में पधारें, तो उनका मुँह खुलता है और कहते हैं, हम इतने लाख रुपये लेंगे। तो धर्म को व्यावसायिक तरीके से बेचने वाले साधु-संतों से बचने की जरूरत है। हमें केवल अपने ईश्वर पर श्रद्धा करनी चाहिए। किसी व्यक्ति पर भी एक सीमा तक हम श्रद्धा कर सकते हैं, मगर उससे अगर पार होते हैं, तो वह अंधश्रध्दा हो जाती है। और अंधश्रद्धा धीरे-धीरे व्यक्ति को अंधभक्त बना देती है। मैं किसी व्यक्ति की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसकी तारीफ तो कर सकता हूँ लेकिन जब उसके चरणों पर लोटने लग जाऊँ, तो मैं अंधभक्त बन जाता हूँ। हमें अंधभक्त बनने से बचना है। निसंदेह हमें अपनी सनातन परंपरा पर गर्व है । घर वापसी अभियान भी ठीक है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम अंधभक्त बनकर किसी के चरणों में गिर जाएँ। हमें अपनी गरिमा बचा कर रखनी है।