कहा जाता था कि जिन लोगों को अपने ही मामले का फैसला समझ में नहीं आता हो और उन्हें पढ़वाने तथा समझने के लिए किसी तीसरे की सहायता लेनी पड़े तो यह खेदजनक है। ऐसी स्थिति में निर्णय को आखिरी छोर तक पहुंचाने के लिए यह संकल्प स्वागत योग्य है। महाराष्ट्र और गोवा की बार कौंसिल में जब प्रधान न्यायाधीश कहते हैं कि 99 प्रतिशत आबादी तक अदालत का काम और उसकी भावना पहुंच ही नहीं पाती तो उसमें छिपी उनकी वेदना समझी जा सकती है। उन्होंने ठीक ही कहा कि जिस भाषा को इस देश का नागरिक समझता है, उसमें न्याय को संप्रेषित करना ही न्याय की सार्थकता है। सवाल उठता है कि यह स्थिति आने में पचहत्तर साल क्यों लगे? वैसे तो इसका उत्तर भी साफ है। संचार क्रांति के मौजूदा दौर में संप्रेषण के ऐसे उपकरण आ चुके हैं कि निर्णयों की प्रति वांछित भाषा में हासिल करने के लिए ज्यादा समय और परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। यूं तो न्याय प्रणाली को कामकाज के नजरिये से आधुनिक रूप देने के लिए प्रधान न्यायाधीश कई बार जोर दे चुके हैं। उन्होंने न्यायपालिका में युवकों और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दिया है, नियमित कार्यप्रणाली में फाइलों के विलोपन और कागजों का ढेर खत्म करने पर जोर दिया है और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तंत्र में भी परिवर्तन की बात कही है। इस श्रृंखला में दो पाली में न्यायालयों के काम करने की शुरुआत भी काफी समय से लंबित है। इससे मुकदमों के निर्णय की रफ्तार तेज हो सकेगी। एक देश में चार करोड़ से अधिक मामलों का लटका रहना कोई शुभ संकेत नहीं है। फैसलों में देरी का एक कारण वकीलों और न्यायाधीशों की कमी भी है। आशा की जानी चाहिए कि शीघ्र ही यह बदलाव देखने को मिलेंगे। लेकिन इन सब परिवर्तनों में भाषा अथवा अपनी बोली में फैसले को समझाना और संप्रेषित करना सबसे महत्वपूर्ण था। क्योंकि संसार का कोई अन्य मुल्क ऐसा नहीं है जहां भारत की तरह भाषा और धार्मिक आधार पर इतनी विविधता हो। विश्व में सबसे अधिक अंग्रेजी का प्रचलन है। इसके बाद चीनी, जर्मन, फ्रेंच इत्यादि भाषाओं का स्थान है। मगर हिंदुस्तान जैसी भाषाएं और बोलियां किसी एक देश में कहीं नहीं हैं। फिर भी संविधान नियामकों को इनमें से 22 भाषाओं का चुनाव करना कठिन काम नहीं था। यदि न्यायतंत्र केवल इन भाषाओं का ही ख्याल करे तो भी बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। भारतीय संविधान में इसीलिए यह संकल्प और प्रावधान संविधान सभा के सदस्यों ने लिया था।
अनुच्छेद 343 में स्पष्ट कहा गया था कि हिंदी भले ही राष्ट्रभाषा नहीं है और 15 साल की सीमित अवधि के लिए अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जा सकता है, तब तक हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को मजबूत किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हो न सका। इसी प्रकार अनुच्छेद 344 में राष्ट्रपति को राजभाषा से संबंधित कुछ विषयों पर सलाह देने के लिए आयोग और संसदीय समिति का प्रावधान है।
इसमें साफ-साफ कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में और संघ तथा राज्य की अधिनियमितियों और विधान के पाठों में प्रयोग की जाने वाली भाषा के बारे में वह राष्ट्रपति को सलाह देगा। आयोग की सिफारिशों की समीक्षा संसद की संयुक्त संसदीय समिति करेगी। आयोग 1955 में गठित किया गया। बी। जी। खेर को अध्यक्ष बनाया गया। आयोग ने कहा कि भारत में भारतीय भाषाओं का प्रयोग व्यावहारिक और जरूरी है, लेकिन इसे समय सीमा में बांधा नहीं जा सकता। यह स्वाभाविक होना चाहिए।
आयोग ने अंग्रेजी में कामकाज 1965 तक बढ़ाने की सिफारिश की थी। हालांकि आयोग उसके बाद अंग्रेजी पर बंदिश लगाने के भी खिलाफ था। इसके बाद संसदीय समिति ने अपनी अनुशंसाओं के साथ स्वीकृति दी। पर वह लंबी कहानी है। अलबत्ता राष्ट्रपति ने 1960-61 में एक आदेश में कहा था कि जब परिवर्तन का समय आएगा तो उच्चतम न्यायालय की भाषा अंतत: हिंदी होगी। अन्य भारतीय भाषाओं का उपयोग राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से हिंदी के स्थान पर वैकल्पिक भाषा के रूप में किया जा सकेगा।
विडंबना यह रही कि इन प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी की बेल कुछ इस तरह फली-फूली कि अन्य भाषाएं हाशिए पर चली गईं। कोई सरकार या प्रशासन तंत्र इसे नहीं रोक सका। कार्यपालिका और विधायिका दोनों ने ही अपने दृढ़ संकल्प का परिचय नहीं दिया। फिर भी फैसलों की प्रति हिंदी और अन्य भाषाओं में मुहैया कराने का निर्णय भी अपने आप में क्रांतिकारी कदम माना जा सकता है।
इसकी अगली कड़ी प्रत्येक न्यायालय में बहस और आपसी संवाद में भी हिंदी तथा अन्य भाषाओं पर जोर देना हो सकता है। यह देखा गया है कि किसी मामले में वकील हिंदी समझते हैं, न्यायाधीश भी हिंदी समझते हैं, आरोपी -प्रत्यारोपी भी हिंदी समझते हैं और वहां के कर्मचारी भी हिंदी जानने, लिखने और समझने में सक्षम हैं फिर भी वे व्यवहार में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल करते हैं। चाहे वह अंग्रेजी अशुद्ध हो। कई बार तो दस्तावेजों में भी अंग्रेजी के गलत शब्द के इस्तेमाल से अर्थ का अनर्थ होते देखा गया है।
अन्य भारतीय भाषाओं के मामले में भी यही रवैया अपनाया जा सकता है। यदि जज, वकील, दोनों पक्षों के लोग और अदालती कर्मचारी मराठी, बंगाली, तेलुगू, गुजराती, कन्नड़ या मलयालम समझते हैं तो उन भाषाओं में बहस क्यों नहीं होनी चाहिए? फैसले के बाद कोई पक्ष ऊपरी अदालत में जाता है तो जिस भाषा में वह उच्च न्यायालय समझे, उसका अनुवाद करा सकता है। इसके अलावा समूची कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग भी सुरक्षित रखी जा सकती है।