शराबबंदी छत्तीसगढ़ सरकार की गले की फांस बन गई है। भाजपा-कांग्रेस के सदस्य अच्छी तरह जानते हैं कि आदिवासी बाहुल्य छतीसगढ़ प्रदेश में इसे लागू करना कोई खेल नहीं। यह बहुत ही पेचीदा मामला है। यदि बिना सोचे समझे ,नोटबन्दी की तरह शराबबंदी की गई तो उसके परिणाम जनता के साथ सरकार को भी भुगतने पड़ेंगें। आदिवासी क्षेत्र के लोग शराब बंदी को किस तरह लेंगें। इस बारे में व्यापक सर्वे की जरूरत है। आदिवासी जन के शादी ब्याह,धार्मिक कार्य में शराब का अपना महत्व होता है। यह मामला उनकी भावना व आस्था से जुड़ा गंभीर मुद्दा है। इसे हसीं में नहीं लिया जा सकता।शायद कांग्रेस के घोषणापत्र बनाने वाले लोगों को महिलाओं पर हुए सर्वे में शराब की सामाजिक बुराइयों का दर्द महसूस हुआ होगा। इसी कारण इस मुद्दे पर सभी भावना में बह गए होंगे। इसके सभी पहलुओं को जानते समझते भी 15 साल के राजनैतिक वनवास को समाप्त करना भी तो जरूरी था। इसीलिए ही वोट पॉलिटिक्स के दबाव में घोषणा पत्र में यह मुद्दा शामिल किया गया होगा। लगा होगा कि 4 साल में हम प्रदेश में इसका सकारात्मक सामूहिक विचार विमर्श करके कोई ना कोई हल निकाल लेंगें। पर ऐसा हो नहीं पाया। ये तो मानना ही पड़ेगा कि कोरोना व प्रारम्भिक दौर में ही अनेक स्थानीय निकायों व पंचायतों के चुनाव ने इस सरकार के हाथ पैर बांध दिये। दो से ढाई साल तो यूं ही समस्यायों का सामना करने में निकल गए। ढाई साल आते ही कुछ और समस्या खड़ी हुई जिसने एक बार तो लगा कि सुनामी का रूप ले लेगी। सुनामी चली भी लेकिन कुछ ऐसा उच्च स्तरीय राजनैतिक दांव खेला गया। अंतत: सब ठीक हो गया। ठीक होते होते भी एक साल गद्दी बचाने के इस ढाई -ढाई साल के संघर्ष ने एक साल बर्बाद कर दिया। साढे तीन साल यूं ही बीत गए। सभी वायदों पर विचार संभव नहीं हो पाया। अब शराबबंदी की बात फिर उठने लगी। भाजपाईयों ने इसे महत्वपूर्ण मुद्दा बना लिया है। शराबबंदी के लिए सरकार के खिलाफ बड़ी घेराबंदी करनी शुरू कर दी है। घेरने लायक मुद्दा है भी।
टीवी चैनलों में डिबेट चलने लगे,भाजपा प्रवक्तागण हमलावर हैं। कांग्रेस को सूझ नहीं रहा कि आखिर कहें तो क्या कहें ? अब सच को स्वीकार करना शुरू कर दिया गया। कहा जाने लगा है कि यह विषय बहुत गंभीर है। अति संवेदनशील मुद्दा है। यूं ही हड़बड़ी में मानव जीवन से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। यह भी जोर देकर कहा रहे हैं कि हम शराब बंदी करेंगें जरूर। इस राह में हम हल्के हल्के कदम रखते हुए शराबबंदी की ओर अग्रसर हैं। कांग्रेस के प्रवक्ता अपनी अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन सरकार के बचाव के लिए कर रहे हैं। भाजपा के प्रवक्ता भी अपनी पूरी ताकत के साथ सरकार का झूठा वायदा या झूठ बोलने वाली सरकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में जुट गए हैं। सरकार का कहना है हमने अधिकांश काम कर दिया है। शराबबंदी के वायदे को भी पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं। भाजपा को कोई एक भी मुद्दा नहीं मिल रहा है। इसीलिए अपने कार्यकाल में शराब के व्यापार का सरकारीकरण करने वाली 15 साल की सरकार के सदस्यों को सिर्फ शराब सूझ रही है। इनकी पार्टी की सरकार ने शराब का व्यापार 5500 करोड़ तक पहुंचाने का काम किया था। चाहते तो इस व्यापार का राजस्व धीरे धीरे कम कर सकते थे,नहीं किया। हमने करने का संकल्प लिया है। हमें ये हताश कर रहे हैं। हम शराबबंदी में भविष्य में आने वाली सारी परेशानियों का अध्ययन कर लेना चाहते हैं। शराबबंदी के बाद जो सामने आ सकती हैं। इसलिए हमने कमेटी बनाई है वो पूरी गंभीरता से उन राज्यों में जाकर अध्ययन कर रही है, जहां शराबबंदी की गई है। देखा गया कि उन राज्यों में राजस्व भी गया और शराब अभी भी उपलब्ध हो जाती है। बहुत सी अन्य बातों का भी अध्ययन किया गया। सबक यह मिला है कि जल्दबाजी में इस गंभीर विषय पर निर्णय लेना ठीक नहीं। यह भी कि हम अपनी बात पर कायम हैं। हम जागरूकता पैदा करने कार्यक्रम चलाए जाने पर सोच रहे हैं। अंतत: हम शराबबंदी कर ही देंगें। इधर भाजपा का कहना है कांग्रेस ने घोषणा पत्र में पूर्ण शराबबंदी की बात की थी। अब किंतु- परंतु का क्या मतलब ? लगता है आने वाले चुनाव तक यह मुद्दा कई रूप बदलेगा। भाजपा धर्मांतरण,हिदुत्व,कानून व्यवस्था,हिन्दू-मुस्लिम, आवास योजना के बाद शराबबंदी को सबसे बड़ा मारक मुद्दा मान कर चल रही है।इन्ही मुद्दों के रास्ते सत्ता में लौटना चाहती है। देखना यह होगा कि प्रदेश की जनता इसे किस रूप में समझ रही है। पूरे परिदृश्य पर नजर डाले व बुद्धिजीवियों की माने तो कुछ बातें साफ दिखाई पड़ रहीं हैं। यह कि दबाव में आकर अगर जल्दबाजी में कुछ कर दिया गया तो सरकार को आदिवासियों का कोप भाजन बनना पड़ सकता है। प्रदेश की 44 विधानसभाओं में आधी आबादी आदिवासियों की है।वे शराबबंदी को किस रूप में लेंगें,इसे समझना जरूरी है। भाजपा इसका किस रूप में और कितना लाभ उठाती है यह तो समय बताएगा। यह तय होगया है कि भाजपा द्वारा चुनाव तक यह मुद्दा जिंदा रखा जाएगा। कांग्रेस इसका निदान का रास्ता किस तरह निकालेगी यह देखना दिलचस्प होगा।