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भगवान के दर पर भेदभाव!

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हमारे देश में राजनेता या और भी दूसरे लोग समता की बात तो खूब करते हैं लेकिन व्यवहार में वह समता कहीं नजर नहीं आती कम से कम जो अधिक लोकप्रिय मंदिर हैं, वहाँ तो बिल्कुल ही दिखाई नहीं देती। चाहे वह बाबा विश्वनाथ की काशी हो या उज्जैन के महाकालेश्वर का मंदिर। पिछले दिनों मैंने एक बुजुर्ग महिला का वीडियो देखा जिसमें उसे बाबा के दर्शन को लेकर नंबर इंतजार करना पड़ा, तो वह पीतल वाले बेरिकेड्स लांघती है.. वहाँ उपस्थित तमाम लोगों से तीखी बहस करती है… और अंतत: महाकालेश्वर पर जल चढाती है। वह महिला थी, बुजुर्ग थी इसलिए वह ऐसा कर सकी। बाकी कोई दूसरा होता तो शायद ऐसा नहीं कर पाता। उसे जबरन बाहर कर दिया जाता। प्रश्न यह है कि ऐसी नौबत क्यों आती है? ऐसा इसलिए होता है कि आम लोग घंटो लाइन लगे रहते हैं और तथाकथित वीआईपी महाकाल के दर्शन करने आते हैं और उन्हें पूरे सम्मान के साथ गर्भगृह के दर्शन करा दिया जाता है। तब लोगों को गुस्सा आता है। उस दौरान लोग मूक दर्शक बनकर खड़े-खड़े एक तरह से वीआईपी-तमाशा देखते रहते हैं। क्योंकि कानून व्यवस्था का कुछ बंधन बना कर रखा गया है। मंत्री,अफसर अपने पद का लाभ उठा कर आम लोगों को तकलीफ पहुंचाते हैं। प्रोटोकॉल के लिहाज से कभी-कभार राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल या मुख्यमंत्री तक तो यह व्यवस्था कुछ-कुछ स्वीकार हो सकती है, लेकिन पता लगा कलेक्टर साहब को सपरिवार दर्शन करना है, तो सारे श्रद्धालुओं को एक-दो घंटे के लिए रोक दिया जाता है । आखिरी हम यह कैसा समाज विकसित कर रहे हैं, जहां जनसेवा के लिर तैनात अफसरों को इतना महत्व दिया जाता है ? अफसर जनता का नौकर ही है न! मगर हमारे सिस्टम ने नौकर को इस देश में राजा बना दिया है । यह नकली किस्म का लोकतंत्र बहुत दुखद है । देश में सच्चा लोकतंत्र तो उसी दिन आएगा, जब किसी भी मंदिर में श्रद्धालुओं की कतार में कलेक्टर भी खड़ा दिखाई दे.. पुलिस का बड़ा अधिकारी भी खड़ा नजऱ आए.. मंत्री भी खड़ा रहे। कभी-कभी मुख्यमंत्री भी खड़ा हो जाए कतार में। वह तो बहुत ही महानतम दिन होगा, जब हम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भी कतार में खड़े देखेंगे। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में कम -से-कम अभी व्यवहारिक रूप में यह संभव नहीं है । लेकिन फिलहाल इतना तो करें कि कम-से-कम कलेक्टरों, अफसरों और मंत्रियों के लिए श्रद्धाओं को रोकने की व्यवस्था खत्म हो। पिछले दिनों उज्जैन में यह नजारा देखने को मिला। काशी की तरह उज्जैन में भी भव्य कारीडोर बन बन गया है। उसके बाद से श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ गई है तो वहां भी अब शीघ्र दर्शन के लिए शुल्क भी लिया जाने लगा है। भस्म आरती और गर्भगृह के दर्शन के लिए 750 रुपये तक शुल्क लिया जा रहा है। जिसे नि:शुल्क दर्शन करना है, तो उसके लिए (गोया बड़ी कृपा की गई) उसे 150 फीट दूर से कांच के पार से बाबा के दर्शन करने होंगे, जहां से वे ठीक से नजर भी नहीं आते। मुझे लगता है, ऐसा सहज सरल सिस्टम बनना चाहिए, जिसके चलते श्रद्धालुओं को कोई तकलीफ न हो। सर्वाधिक तकलीफ तो लोगों को उस वक्त होती है, जब भगवान के द्वार किसी वीआईपी के लिए खोल दिया जाते हैं और लोकतंत्र के राजा को यानी लोक को अर्थात लोगों को रोक दिया जाता है। यह कैसा इंसाफ है? इस पर विचार की ज़रूरत है। भगवान के दर पर तो भेदभाव नहीं होना चाहिए। वहां भी अगर भेदभाव दिखाई दे तो काहे का धर्मस्थल? धर्म स्थलों में भेदभाव अधर्म से कम नहीं।