Home मेरी बात चला गया एक आधुनिक गाँधी

चला गया एक आधुनिक गाँधी

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बात कर रहा हूँ, स्वच्छता, पर्यावरण और अपशिष्ट प्रबंधन के पर्याय बन चुके डॉ बिंदेश्वर पाठक की, जो आज भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में शौचालय के क्षेत्र में किए गए क्रांतिकारी कार्यवश मशहूर हो चुके थे। कुछ दिनों पहले उनका हृदयाघात के चलते निधन हो गया. मुझे लगा, ऐसे व्यक्तित्व के बारे में ज़रूर लिखा जाना चाहिए, जिसने सूटबूट धारण करते हुए भी लंगोटीधारी महात्मा गाँधी की परम्परा के अनुगामी ही थे, ख़ास कर अछूतोद्धार के मामले में. डॉ पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल नामक एक संस्था बनाई, जिसने देश भर में शौचालय और स्नानागार शुरू किए. अब तो हर बड़े -छोटे शहर में सुलभ शौलालय मिल जाते हैं, लेकिन वर्षो पहले, ख़ास कर पचास साल पहले, किसी व्यक्ति को अगर अचानक शौच लगे, तो वो दिक्क्त में पड़ जाता था. आम आदमी के इस परेशानी को महसूस करके डॉ पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल सोशल संस्था बनाई। देखते-ही देखते यह संस्था देशव्यापी हो गई। पहले इनके अपने निजी शौचालय काम्प्लेक्स बने, जहां मात्र पांच रुपये देकर आदमी निवृत्त हो जाता था. इससे प्रेरित होकर सरकारी निकायों ने भी काम करना शुरू किया। जब मैं साहित्य अकादमी, नई दिल्ली का सामान्य सदस्य था, तो एक बार दिल्ली के पास स्थित पाठक जी के मुख्यालय को देखने का अवसर मिला था. जहां. मेरे साथ अछूतों के विषय में लिखने वाले लेखक डॉ देवेंद्र दीपक और अन्य लेखक थे। तब डॉ पाठक ने हमको पूरा परिसर घुमाया था. उनका टॉयलेट या कमोड म्यूजियम लाज़वाब था। वहां तरह-तरह के प्राचीनतम मगर आधुनिकतम टायलट नजऱ आए। यानी अजीबोगरीब कमोड देखे, जिस पर राजा-रानी वगैरह बैठा करते थे. मानव मल को प्रोसेस करके उसे सामान्य उपजाऊ खाद में बदलने का कमाल भी पाठक जी कर रहे थे. पाठक जी भारत की उन महान विभूतियों में थे, जो ब्राह्मण धर्म में जन्म लेकर भी कभी मैला ढोने वालो से अलगाव नहीं किया. वरन वाल्मीकि समाज को उनके तथाकथित काम से मुक्त करने का अभियान चलाया। ऐसा वे बचपन से करने की भावना रखते थे. बचपन में उन्होंने एक अछूत महिला को छू दिया था, तो दादी ने इनको पीटा था, तब से ही बाल मन में यह बात बैठ गई थी, कि यह विषमता ठीक नहीं। वे जब बड़े हुए तो अछूतो को गले लगाने का ही काम किया। महात्मा गांधी के अछूतोद्धार का जो पवित्र काम शुरू किया था, उसे आज़ादी के बाद पाठकजी ने आगे बढ़ाया. कोई भी सरकार इस दिशा में सफल नहीं हो पा रही थी, तब 1970 में पाठक जी ने इस पर विचार किया और सुलभ शौचालय के निर्माण पर काम शुरू किया, और आम आदमी की एक महत्वपूर्ण समस्या समाधान होता गया। पाठक जी के नेतृत्व में अनेक अछूत समझी जाने वाली महिलाओं को सम्मान के साथ सुलभ के कार्यों से जोड़ा, मुख्यालय में सैकड़ों बहने विभिन्न कार्य कर रही है। हजारों दलित, वंचित इनसे जुड़ कर रोजगार प्राप्त कर चुके हैं. इनके प्रयासों से सर पर मैला ढोने के प्रथा से मुक्ति मिली। पर्यावरण के अनुकूल कैसे टॉयलेट बने, इसके कुछ मॉडल सुलभ इंटरनेशनल के मुख्यालय में दिख जाते है. स्वच्छता की दिशा में कार्य करने वाली एक बहन को तो पद्मश्री तक मिली। पाठक जी को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. नोबेल सम्मान भी मिलता, तो वह कम ही होता। टाइम जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका ने पाठक जी के काम पर लिखा। डॉ पाठक जैसे लोग सदियों में पैदा होते हैं और एक राह दिखा कर चले जाते हैं. अस्सी वर्ष की आयु में पाठक जी भी चले गए लेकिन दिशा में जो राह उन्होंने दिखाई, उस पर आने वाली पीढिय़ाँ,सरकारें चलती रहेंगी। जीवन वही सार्थक है, जो परंपरा निर्माण करे.