अखबार की सुर्खियों के अनुसार केन्द्र सरकार चाहती है कि ‘एक देश-एक चुनावÓ की सुविधा बनाई जावे ताकि आर्थिक बोझ कम हो। आचार संहिता के कारण विकास कार्य बाधित होते हैं, उसमें कमी आए। लोगों को अन्य कार्य करने का सम्पूर्ण अवसर प्रदान हो। यह तो हुए प्रत्यक्ष लाभ, अब इसमें कई राजनैतिक चुनावी लाभ भी छुपे हुए हैं जो केंद्र शायद सार्वजनिक नहीं करना चाहती। वो यह है कि एक चुनाव में एक पार्टी को अधिक लाभ होता है। पूर्व के आंकड़ों के अनुभव कुछ यही कहते नजर आ रहे हैं। यह भी कि एक चुनाव में स्थानीय मुद्दे दब जाएंगे, केन्द्रीय मुद्दे ऊपर हो जाएंगे। चुनाव खर्च भी महत्वपूर्ण एजेंडा होगा। 6000 करोड़ से ज्यादा चंदा पाने वाली भाजपा कहीं सभी को पछाड़ कर आगे न आ जाए। जिनके चुनाव 2023 नवम्बर में होने हैं उन पर या तो राष्ट्रपति शासन का खतरा होगा या उनका कार्यकाल 5 साल से आगे बढ़ा दिया जाएगा। यह म.प्र., छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम, तेलंगाना में हो सकने की संभावना बनती है। अगर कार्यकाल बढ़ाया जाता है या राष्ट्रपति शासन उस गैप में लगाया जाता है। दोनों के लिए राज्यों से आपसी सहमति के साथ संविधान की धाराओं में बड़ा संशोधन लाने की जरूरत होगी। अगर समय बढ़ाने से संविधान संशोधन हुआ तो राज्यों को काम करने का अवसर और मिल जाएगा। राष्ट्रपति शासन के लिए लाया गया तो गैर कांग्रेसी सरकारों का किया धरा माटी में मिलाने का काम विपक्ष वहां कर देगी। अगर राष्ट्रपति अगले चुनाव तक पद पर बने रहने का अस्थाई प्रावधान करते हैं तो कोई लाभ नहीं क्योंकि पावरलैस अस्थाई सरकार सिर्फ रूटिन के काम ही कर पाएगी। दिसम्बर 24 तक 12 राज्यों में चुनाव होने हैं वे सभी इसी स्थिति का सामना करेंगे। सबसे ज्यादा चुनावी प्रचार में अपने पिक पर पहुंच चुके छत्तीसगढ़, राजस्थान, म.प्र. जैसे प्रमुख बड़े राज्य पर पड़ेगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में ‘एक देश-एक चुनावÓ के लिए एक समिति भी बन गई। और सबको चौंकाते हुए विशेष सत्र बुलाए जाने का एलान कर इस बहस को बल दे दिया गया। सभी दलों की अनजाने राजनैतिक हमले की सोच से धडकऩे तेज हो गई। हालांकि राजनैतिक संवैधानिक जानकार यह कहते हैं कि चुनावी राज्यों में पडऩे वाले गैप के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करना आसान काम नहीं। इसकी संभावना भी नहीं के बराबर बताई जा रही है। इस हालत में ये राज्य सोच में पड़ गए कि अगर यह सोच ‘एक देश-एक चुनावÓ को और कौन से रास्ते से साकार की जाएगी। क्या 2024 में देशभर की राज्य सरकारों का विघटन करने की तैयारी है। इसके लिए तो बहुत बड़ी सहमति व आधार की जरूरत पड़ेगी। ऐसा कुछ भी करने के लिए संविधान में बड़ा संशोधन किया जाना जरूरी होगा। हालांकि बहुमत के आधार पर भाजपा की गठबंधन वाली सरकार कुछ भी करने में सक्षम मानी जा रही है। यह इतना आसान नहीं कि राज्यों की सहमति उन्हें आसानी से मिल जाए। नवाचार करने वाली मोदी सरकार कुछ भी करने को तैयार है। कुछ भी कर सकती है। ऐसा मानने वाले इस सोच को भी ‘तानाशाहीÓ का नाम देते हैं। लोग मानते हैं कि प्रजातंत्र व संविधान से छेड़छाड़ की जा रही है। जो बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह रास्ता किसी के पास नहीं दिखता कि वे रोकने करेंगे क्या? भाजपा व उनके गठबंधन के लोग मोदी के इस कदम से जरूर भीतर-भीतर अपना लाभ मानकर खुश हो रहे होंगे। लेकिन यह संशोधन अगर हो गया तो यह मान कर चलो कि मोदी की किसी भी बात या सोच का विरोध या तो बंद हो जाएगा अथवा करने की हिम्मत ही नहीं बचेगी।
यह आधिकारिक रूप से कहा जा सकता है कि 1951 से जब से चुनाव होने शुरु हुए तब से 1961 तक 15 साल साथ में चुनाव हुए। उसके बाद विधानसभाओं के समय पूर्व अवसान अथवा बर्खास्तगी के कारण इसमें व्यवधान हो गया। तब के चुनावी दौर में कई विधानसभा सीटों पर एक आदिवासी अथवा एसटी के साथ एक सामान्य वर्ग का प्रत्याशी भी चुनाव लड़ते थे। यानि एक विधानसभा में दो विधायक भी हुआ करते थे। यह व्यवस्था सुरक्षित सीट ना होने की स्थिति में उक्त क्षेत्र की जाति बाहुल्यता के आधार पर तय की जाती थी। अंतराल में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। जबकि देश में दो या तीन चार दल प्रमुख रूप से मौजूद थे। तब तक यह प्रथा चली।
अब तक ना जाने राज्यों में कितने उतार-चढ़ाव क्षेत्रीय दलों के उत्थान-पतन के दौरान आ गए। एक साथ चुनाव का तारतम्य लगभग टूट सा गया। अब तक हर दूसरे-तीसरे माह किसी ना किसी राज्य का चुनाव आ जाता है। पिछले सिर्फ लोकसभा चुनाव में 6000 करोड़ से ज्यादा का खर्च हुआ। राज्यों के चुनाव की गिनती इसमें नहीं है। अनुमान किया जा सकता है कि लाख करोड़ से ऊपर मेहनत व पसीने की जनता की कमाई राजनैतिक दांव-पेंच की भेंट चढ़ जाती है। यही पैसा विकास में खर्च होना चाहिए। यह सोचने में अच्छा तो लग रहा है लेकिन अब राजनीतिक दांव-पेंच के कारण पैदा हुई यह स्थिति सुधरेगी कैसे? अंत में यदि केन्द्र सरकार नेक नीयत से यह विचार सामने ला रही है तो इसके लिए सारी संभव चौतरफा कोशिशें होनी चाहिए। अन्यथा यह विचार ही देश में संवैधानिक उथल-पुथल मचाकर रख देगा, इसकी संभावना अधिक है। मंथन जारी है, देखे ऊंच किस करवट बैठता है।