जैन समाज ही नहीं, भारतीय समाज ही नहीं, पूरे विश्व समाज की एक बड़ी क्षति है आचार्य श्री विद्यासागर जी का महाप्रयाण। कर्नाटक में जन्मे इस महान संत ने अपने जीवन कर्म से दक्षिण और उत्तर को समरस कर दिया था सात आठ भाषाओं के वे ज्ञाता थे। दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने राजस्थानी और हिंदी सीखी। इनसे कभी मिलने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन उनके बारे में निरंतर पढ़ता, सुनता रहा। गौ माता के संरक्षण हेतु किए गए उनके प्रयासों को हम कभी नहीं भूल पाएंगे। इनके आशीर्वाद से ही अनेक जगह गौशालाएं चल रही हैं। इनके निधन को हमारे एक प्रसिद्ध हमारे मित्र डॉक्टर यतीश जैन ने कहा, ‘यह केवल शोक का विषय नही भारत के इतिहास में आचार्य श्री विद्यासागर जी का ‘जयवंत दिवसÓ है । 1966 से चल रही आध्यात्मिक यात्रा का विराम 18 फरवरी माघ शुक्ल नवमी के दिन हुआ।Ó आचार्य विद्यासागर जी ने अपने एक वीडियो में सबको यह संदेश दिया था कि एक दिन तो इस संसार से सबको जाना ही है इसलिए रोना-धोना नहीं। यतीश जी के माध्यम से मुझे जब आचार्य श्री के बारे में जानकारी मिली तो मैं दंग रह गया। वे सचमुच वीतरागी थे। तपस्वी थे। त्यागी संत थे। उनका अपना कोई बैंक बैलेंस नहीं था। वे तो दिगंबर थे इसलिए उनकी कोई ज़ेब भी नहीं थी जिसमें वे कुछ पैसे रखते। लेकिन उनको मानने वाले लोगों के पास अकूत दौलत थी। इसलिए आचार्य श्री का आदेश मानकर लोग खुलकर दान किया करते थे। उनका पूरा जीवन अद्भुत त्याग का मिसाल है। हम उनके संकल्पों को देखें तो चकित रह जाएंगे। मेरे जैसा व्यक्ति तो कभी किसी नियम का पालन ही नहीं कर सकेगा। उन्होंने आजीवन चीनी, नमक, दही,हरी सब्जी, सूखे मेवे, तेल, फल का त्याग किया। कठिन साधना यह कि उन्होंने थूक भी त्याग दी थी। चटाई पर सोते थे। कोई गद्दा नहीं, कोई तकिया नहीं। ठंड में भी बिना किसी वस्त्र के रात निकाल देने वाले तपस्वी। अंग्रेजी दवाई कभी नहीं खाई। हाथ में भोजन आ गया, उसे ही ग्रहण किया। अंजुरी में जितना जल आ गया, उसी को पीकर तृप्ति कर ली। और यह क्रम वर्षों से निरंतर जारी रहा। उनकी काया जर्जर हो चुकी थी लेकिन मन जीवंत बना रहा । वे प्रवास करते और लोगों को बेहतर जीवन जीने का संदेश देते रहते। अंतिम समय में वे डोंगरगढ़ में बने भव्य चंदगिरि मंदिर परिसर में रहते हुए समाज का मार्गदर्शन कर रहे थे। उनके गौरवशाली इतिहास को जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि यह किशोरावस्था से ही ब्रह्मचारी व्रत धारण करके संन्यासी होना चाहते थे। जब घर वालों ने मना किया तो आपने तीन दिन तक लगातार निर्जला उपवास किया। आखिरकार सबको अपनी जिद छोडऩी पड़ी और आचार्य विद्यासागर संत बन गए। गौशालाओं के निर्माण में उनकी अद्भुत भूमिका रही। इसका जिक्र मैंने अपने उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ में भी किया है। आपने न केवल देसी गायों की चिंता की वरन बालिका शिक्षा की दिशा में भी काफी कार्य किया। वे दिगंबर संत थे। सब कुछ त्याग दिया था। लेकिन वह सबसे यही अपेक्षा करते थे कि राष्ट्र के निर्माण में अपनी महती भूमिका अदा करते रहें। उन्हें अपने महाप्रयाण के बारे में पता चल गया था। इसलिए उन्होंने तीन दिन पहले से ही कुछ भी ग्रहण करना बंद कर दिया था । उन्होंने आचार्य पद का भी त्याग करके अपने उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य समय सागर को नामांकित कर दिया था। उनके अंतिम दर्शन करने जो हजारों लोग डोंगरगढ़ पहुँचे, वे सब उनकी कृशकाय छवि को देखकर जरूर द्रवित हुए लेकिन आचार्य जी के चेहरे पर जो तपस्वी भाव था, वह उनकी महानता की गाथा कह रहा था। कर्नाटक में जन्मे और छत्तीसगढ़ में जीवन से मुक्त हुए। यह इस राज्य का भी परम सौभाग्य कहा जा सकता है।