पिछले दिनों मानवाधिकार दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर1948 से को यह निर्णय किया था। इसके पीछे भावना यही थी कि पूरी दुनिया में मानव समाज को बेहतर जीवन जीने का हक मिले। वह पूरी आजादी के साथ अपने को अभिव्यक्त कर सके। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि मानवाधिकार धीरे-धीरे एक नारा बनकर रह गया है। इसे कार्य रूप में परिणित होते हम कम देख पाते हैं। हमारे संविधान में भी मानवाधिकार की व्याख्या की गई है। लेकिन क्या सचमुच मानवाधिकारों का न्याय संगत परिपालन हो रहा है? इस पर जब दृष्टिपात करते हैं तो गहरी निराशा होती है। मनुष्य की रोजी-रोटी, शिक्षा,स्वास्थ्य जैसे बुनियादी विषय हैं , जो अभी तक विश्व के करोड़ों लोगों तक पहुंच नहीं सके। दुनिया के ऐसे अनेक देश हैं, आज भी कुपोषण और बेकारी है, बदहाली है। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों का दमन होते रहता है और आश्चर्य, संयुक्त राष्ट्र संघ कोई कड़ा कदम उठा नहीं पाता। कदम-कदम पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले सामने आते हैं। न केवल भारत वरन विदेश में भी। आज भी वहाँ गोरी-काली चमड़ी का भेद स्पष्ट दिखाई देता है। गोरी चमड़ी पर इतराने वाले देश के नागरिक वहां रहने वाले अश्वेत लोगों को घृणा की नजर से देखते हैं । अमेरिका जैसे विकसित देश में भी यह मानसिकता दिखाई देती है। वहां की गोरी पुलिस अश्वेत नागरिकों का दमन करने से नहीं चूकती। कभी कभी तो उनकी जान भी ले लेती है। भारत में मानवाधिकार की हालत बहुत ज्यादा खराब है। यह कितने शर्म की बात है की 2021 में ‘फ्रीडम इन द वर्ल्डÓ नामक जो रिपोर्ट सामने आई, उसमें भारत देश के बारे में यह टिप्पणी की गई कि यह देश ‘आंशिक रूप से स्वतंत्रÓ है। यह टिप्पणी अनायास नहीं की गई है ।उसके पीछे गहन अध्ययन मनन किया गया है। हम देखते हैं कि इस लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्राय: दमन होता रहा है। आज भी अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकलने वाले लोगों पर पुलिस का बर्बर अत्याचार होता है। धरने पर बैठे लोगों पर डंडों से प्रहार किया जाता है। किसी मंत्री मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ प्रदर्शन करते हुए जाने वाले लोगों पर लाठीचार्ज होता है, उनकी गिरफ्तारी, उनकी पिटाई होती है। यह सीधे-सीधे मानवाधिकार का उल्लंघन है।
12 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन हुआ लेकिन यह आयोग भी सफेद हाथी साबित हो रहा है। हजारों ऐसे मामले हैं, जिसमें पुलिस द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। उस पर संज्ञान लेकर कड़ी कार्रवाई नहीं होती। यानी दोषी लोग बर्खास्त नहीं होते । यही कारण है कि पुलिस का हौसला बढ़ता है। भारत देश में सबसे ज्यादा इसी तरह के मामले आते हैं। उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक मामले पिछले वर्ष दर्ज किए गए। अन्य राज्यों में भी प्रताडऩा के मामले प्रकाश में आते रहे हैं। आज भी अपने देश में पुलिस मनमानी करती है। जिस किसी को भी वह चाहे गिरफ्तार कर सकती है,प्रताडि़त कर सकती है। गोया उसे प्रताडि़त करने का लाइसेंस मिला हुआ है। न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला ने वर्षों पहले कहा था, पुलिस वर्दीधारी गुंडों का संग्रहित गिरोह है। पुलिस को अपनी इस स्याह छवि से बाहर निकलना होगा। पुलिस हिरासत में मौतों का मामला बेहद गंभीर है। एक स्वस्थ व्यक्ति गिरफ्तार होने के बाद थाने जाता है और दो दिन बाद पता चलता है, उस ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली! यह सारी स्टोरी समझ में आती है कि हकीकत में हुआ क्या था। कहने को हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं लेकिन चुनी हुई सरकारों के संरक्षण में ही मानवाधिकार का अपमान होता है। उल्लंघन होता है। यह भी तय है कि जनप्रतिनिधि मानवाधिकारों का संरक्षण चाहते हैं लेकिन वह प्रशासनिक तंत्र से इस कदर घिरे रहते हैं कि वे चाह कर भी प्रतिवाद नहीं कर पाते और पुलिस अपने हिसाब से आम लोगों को परेशान करती रहती है। सर्वाधिक अत्याचार प्रदर्शनकारियों पर होता है। आश्चर्य होता है कि प्रदर्शनकारियों को हमारी पुलिस को गोली मार देती है, जबकि यह प्रदर्शनकारी पूरी तरह निहत्थे होते हैं! यह अपने आप में बहुत गंभीर अपराध है और मानवाधिकार के उल्लंघन का शर्मनाक अध्याय है। अमेरिका में श्वेत अश्वेटन के बीच संघर्ष होता है। वहाँ अश्वेतो का दमन होता है तो भारत देश में आर्थिक आधार पर दमन का खेल चलता है। जो पैसे वाले हैं, वे मोटी रकम देकर पुलिस प्रताडऩा से बच जाते हैं, पर गरीब पिसता है। आज भी अनेक निर्दोष आदिवासी और अन्य लोग जेलों में सड़ रहे हैं। तुम ऐसा है कि उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। काश! मानवाधिकार सिर्फ एक जुमला न बने, वह यथार्थ में कार्यान्वित होता भी दिखाई दे।