राहत इंदौरी के शेर की लाइन है ‘सरहदों पर तनाव है क्या ? जरा पता करो चुनाव है क्या? इसी तर्ज में 2023 के चुनाव का आगाज होना शुरू हो आया है। जैसे जैसे समय खिसकेगा वैसे वैसे यह तनाव बढ़ते बुखार की तरह बढऩे लगेगा।दोनों दल अपने अपने एजेंडे पर खेलना तेजी से प्रारंभ कर चुके हैं। धर्मांतरण का जिन्न कवर्धा के बाद अब फिर नारायणपुर की घटना के सहारे बोतल से बाहर निकल गया है। विधंसबह चल रही है। तनाव तो बढऩा ही था। आज सदन में बढा भी है। इसीलिए यह शेर याद भी आया और सटीक बैठ भी रहा है। विधानसभा आज़ दूसरे दिन भी आरक्षण व धर्मांतरण के मुद्दे पर गरम रही। 70 पर 14 भारी पड़ गए। या यूं भी कह सकते हैं कि 70 पे तीन याने बृजमोहन अग्रवाल-अजय चंद्राकर-शिवरतन की तिकड़ी ही भारी पड़ जाती है। विधान सभा में प्रचलित शब्द ध्वनि की बात करें तो 70 की ध्वनि पर 3 या कह लें कि 14 की ध्वनि तेज निकलती है। 70 की आवाज के बीच 14 की गूंज अधिक सुनाई पड़ती है। आज तो आरक्षण का साथ धर्मांतरण भी जुड़ गया यानी करेला वो भी नीम चढ़ा। लोग कहने लगे हैं कि लगता है अब भाजपा का चुनावी रथ अपने पहिये घुमाना शरू करने लगा है। कांग्रेस भी कोई कमी नहीं करना चाहती। सरकार के मुख्य मंत्री भूपेश बघेल आंदोलनों -प्रदर्शन-संघर्षशीलता का प्रतीक हैं। अपनी युवा अवस्था से आंदोलनों का बड़ा अनुभव रखते हैं। प्रदर्शन और उनकी राजनैतिक समझ को भी लोगों ने देख लिया है। सीडी कांड में जमानत नहीं ली, जेल जाने का निर्णय लिया। इसी संघर्ष के रास्ते सरकार में पहुंच गए। मुख्य मंत्री बन गए। सरकार में भी अब उन्हें आंदोलन का वो जुनून कभी कभी आ जाता है। आज आरक्षण के मामले में राज्यपाल को घेरने के साथ भाजपा को भी कठघरे में लाने का काम किया। राज्यपाल के पद को भी जनता के सामने खड़ा करने का प्रयास किया। संविधानिक पद की गरिमा खुद मुख्यमंत्री की मौजूदगी में धूमिल होता दिखा। हजारों की बड़ी संख्या में उपस्थिति कार्यकर्ताओं ने दी। इनमें आम आदमी की कितनी मौजूदगी थी यह तो प्रमाणित नहीं किया जा सकता। लोगों के बीच यह संदेश जरूर चला गया कि संवैधानिक पद को भी घेरे में लिया जा सकता है। इस पद पर आसीन व्यक्ति के अच्छे बुरे कामों की सार्वजनिक व्याख्या की जा सकती है। यह अलग बात है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है इसकी समीक्षा कौन और कैसे करेगा। प्रदेश में हुए इस विवाद से एक और संदेश भी जा रहा है कि राज्यपाल जैसे गरिमामयी पद की भूमिका तेजी से विवेक के निर्णय की ओर बढ़ रही है। कहीं राज्यों के हाल दिल्ली की सरकार की तरह तो नहीं हो जाएंगे। जिसे चुनती जनता है , पर अधिक अधिकार नियुक्त राज्यपाल का होता है। कहीं यह राज्यपालों की भूमिकाएं बदलने का समय तो नहीं आ गया ?