Home मेरी बात विश्व में लहरा रही हिंदी की पताका

विश्व में लहरा रही हिंदी की पताका

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10 जनवरी 1975 को नागपुर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। तब वहाँ संकल्प लिया गया था कि एक दिन हिंदी संयुक्त राष्ट्र में गूँजेगी। और इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे 13 जुलाई 2007 को न्यूयार्क के विश्व हिंदी सम्मेलन में हुआ, जिसमें मैं शामिल हुआ था। संयुक्त राष्ट्र संघ के उस समय के महासचिव बान-की-मून ने अपना प्रारंभिक उद्बोधन हिंदी में ही दिया था। भारत के लगातार दबाव के बाद फिलहाल अब यह स्थिति है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी के साथ बांग्ला और उर्दू में भी वहां की सूचनाएं प्रकाशित होने लगी हैं। आने वाले समय में अधिकृत भाषा के रूप में हिंदी भी अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश की तरह संयुक्त राष्ट्र की भी आधिकारिक भाषा ज़रूर बनेगी। अब तो हिंदी का निरंतर विस्तार हो रहा है। अमेरिका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, त्रिनिदाद, लंदन, सूरीनाम आदि में विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं। इस बार फरवरी 2023 में फिजी में सम्मेलन होने जा रहा है। इन सम्मेलनों के कारण न केवल वहाँ और अन्यान्य देशों में भी हिंदी को लेकर एक सकारात्मक वातावरण बना है। आज दुनिया के 140 देशों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। अगर हिंदी और उर्दू को एक साथ हम जोड़ करके उसे हिंदुस्तानी कहें तो हिंदी विश्व की नंबर वन भाषा है। इसे हिंदी के एक महत्वपूर्ण अनुसंधानकर्ता प्रो जयंतीप्रसाद नौटियाल ने सिद्ध भी किया है। वर्षो के शोध के बाद उन्होंने सप्रमाण बताया है कि पूरी दुनिया में हिंदी बोलने वालों की संख्या इस समय एक अरब, पैंतीस करोड़, साठ लाख है। चीन की भाषा मंदारिन बोलने वाले एक अरब, बारह करोड़ हैं। जबकि अँग्रेज़ी भाषा तीसरे क्रम में हैं। उसके बोलने वाले हिंदी से एक करोड़, बावन लाख कम हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम विदेशी आंकड़ों पर अधिक भरोसा करते हैं और अपने लोगों द्वारा किए गए ईमानदार शोध को पर भरोसा नहीं करते। हमारे हिंदी के अनेक तथाकथित विद्वान किसी भी साहित्यिक विषय पर विमर्श करते हुए विदेशी लेखकों को तो खूब उद्धृत करते हैं मगर अपने महान रचनाकारों को भूल जाते हैं। शेक्सपियर का उल्लेख करेंगे, तुलसी, कबीर को भूल जाएंगे। कालिदास को भारत का शेक्सपियर बताएँगे, जबकि कहाँ कालिदास और कहाँ शेक्सपियर। हमें ऐसी हीनता से ऊपर उठना है। हिंदी के मामले में तो हीनता का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। गुलामी हमारी मानसिकता में इस कदर घर कर गई है कि हम सोचते हैं कि अँग्रेज़ी के बिना हमारा कुछ नहीं हो सकता। विश्व के नंबर वन फुटबॉल खिलाड़ी मेसी को अँग्रेज़ी नहीं आती। यह भाषा उसके विकास में कभी आड़े नहीं आई। ऐसे लाखों प्रतिभाशाली लोग हैं, जिन्होंने बिना अँग्रेज़ी ज्ञान के विश्व में अपना परचम लहराया। दुनिया के अनेक देशों में उनकी ही राष्ट्रभाषा में ही कार्य होता है। अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपनी भाषा में ही संवाद करते हैं। इसी परंपरा को हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आत्मसात किया है। उन्हें अच्छी अँग्रेज़ी आती है लेकिन विदेश यात्रा के दौरान दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष से वह हिंदी में बात करते हैं। उनकी बातों का दुभाषिये उस देश की भाषा में अनुवाद करते हैं।हमें ऐसी राष्ट्रभाषा पर गर्व करना चाहिए जो आज दुनिया में सबसे अग्रणी है। राष्ट्रभाषा के सवाल पर कभी मुंशी प्रेमचंद ने बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी कि राष्ट्रभाषा से हमारा क्या आशय है। इसके विषय में मैं आपसे दो शब्द कहूँगा। इसे हिंदी कहिए,हिंदुस्तानी कहिए या उर्दू कहिए ,चीज एक ही है। नाम से हमारी कोई बहस नहीं। ईश्वर भी वही है, जो खुदा है। और राष्ट्रभाषा में दोनों के लिए समान रूप से सम्मान का स्थान मिलना चाहिए। अगर हमारे देश में ऐसे लोगों की काफी तादाद निकल आए जो ईश्वर को गॉड कहते हैं तो राष्ट्रभाषा उनका भी स्वागत करेंगी। जीवित भाषा तो जीवित देव की तरह बराबर बनती रहती है। शुद्ध हिंदी तो निरर्थक शब्द है। जब भारत शुद्ध हिंदू होता तो उसकी भाषा शुद्ध हिंदी होती। जब तक यहाँ मुसलमान, ईसाई, पारसी, अफगानी सभी जातियां मौजूद हैं, हमारी भाषा भी व्यापक रहेगी। अमीर खुसरो जैसा विद्वान हिंदी को महिमामंडित करते हुए सैकड़ों साल पहले कहता है कि मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम कुछ पूछना चाहते हो तो हिंदी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा। खुसरो की तरह जायसी, रहीम, रसखान आदि कुछ मुस्लिम कवियों ने हिंदी में लिखा। कुछ मुगल बादशाह भी हिंदी प्रेमी थे। औरंगजेब का अपनी क्रूरता का दु:खद इतिहास है, पर जो प्रमाण मिलते हैं, उसके अनुसार वह हिंदी प्रेमी था। वह आम को रसना-विलास और सुधा रस कहा करता था। हिंदी आज अपने देश मे ही राजनीति का शिकार है। हिंदी की सहजता, सरलता को कुछ लोग जानबूझ कर स्वीकार नहीं करते ।लेकिन इससे हिंदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हिंदी तो एक नदी की तरह निरंतर प्रवाहमान बनी हुई है और देश की सीमा रेखा पार कर वह दुनिया में न जाने कहाँ-कहाँ फैलती चली जा रही है। सीएफ एंड्रयूज़ जैसे विद्वान ने कितनी अच्छी बात कही है कि मेरी समझ में हिंदी ऐसी भाषा बन गई है जिसमें नए विचारों को बड़ी सरलता के साथ व्यक्त किया जा सकता है। महात्मा गांधी ने तो दो टूक कहा था, हिंदी के बिना स्वराज निरर्थक है! यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमें स्वराज्य तो प्राप्त हो गया मगर हम हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। गनीमत है यह राजभाषा तो बन ही गई। बहरहाल, अपने ही एक मुक्तक के साथ अपनी बात खत्म कर रहा हूँ कि
जिसे खुसरो ने दुलराया, कबीरा ने जिसे पाला।
जो तुलसी के यहाँ विकसी जिसे रसखान ने ढाला।
मोहम्मद जायसी की और रहिमन की धरोहर है ।
ये हिंदी ओढ़ कर बैठी है, उर्दू का भी दोशाला।।