देश में अब धर्म के साथ साथ कुछ सालों से एक नई तरह की राजनीति की शुरुवात हुई है। फिल्मी यानी कला क्षेत्र की राजनीति। निर्माता निर्देशक भी दलों के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढाने के काम में बड़ी शिद्दत से अपना काम कर रहे हैं। किसी किसी फिल्म के प्रमोशन के लिए तो बड़े बड़े दिग्गज नेता भी सामने आ कर जनता को फि़ल्म देखने की प्रेरणा देते दिखाई दिए थे। इसका फायदा भी हुआ। एक वर्ग विशेष ने फि़ल्म खूब देखी-दिखाई। टिकटें एक विचारधारा से जुड़े लोगों ने मुफ्त में बांटी। माले-मुफ्त दिल बेरहम की कहावत सिद्ध की गई लोगों ने मुफ्त में दो-दो बार फि़ल्म दर्शन किये। टीवी चैनलों पर राष्ट्रीय व प्रादेशिक मंच पर खूब डिबेट कराई गई। एजेंडा एकदम फिट किया गया। लोगों ने इसे किस तरह लिया उसे एक तरफ छोडि़ए,निर्माता की तो लाटरी निकल पड़ी। 20 लगाए थे 341 करोड़ काम लिए। अब उत्तर-दक्षिण की एक अजीबो गरीब फिल्मों की राजनीति भी अब देश की राजनीति में तेजी से प्रवेश कर गई है। अब कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि दक्षिण की फिल्में ही भारतीय संस्कृति की रक्षा कर रहीं हैं। बॉलीवुड तो कचरा परोस रहा है,भगवा पर विवाद कर रहा है। गंदी बात गानों के माध्यम से कह रहा है। यानी साफ साफ एजेंडा है कि दक्षिण के फिल्मकार हैं जो भारत की गाथा को बढ़ा रहे हैं,अन्य तो संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं। मानों अभिव्यक्ति कि स्वन्त्रता के कोई मायने नहीं बचे।
कलाकार-निर्माता-डायरेक्टर भी अब दो खेमों में बंटे साफ दिखाई देने लगे हैं। सब दोनों प्रमुख दलों के एजेंडों को प्रमोट करने के हिसाब से अपनी फिल्मों की पटकथा लिखवा रहे हैं। ऐसी फिल्मों में युगों से हमारे दिलों में बसे राम-हनुमान- सेतुसमुंद्रम के अस्तित्व को प्रमाणित करने का एजेंडा दिखाया जा रहा है। फिल्मों की कहानियों की तासीर बदलती दिखाई देने लगी है। कश्मीर का इतिहास कश्मीर फ़ाइल के जरिये बदलने का प्रयास किया गया। पंडितों पर अत्याचार तो दिखाया वो तो ठीक था पर उस दौर की सत्ता किसके हाथ में थी, हुक्मरानों व सत्ताधीशों की चर्चा फि़ल्म में नहीं की। सिर्फ वो ही दिखाया गया जिससे एक वर्ग के दिल को छू जाए और एक वर्ग विशेष के प्रति घृणा का फैलाव हो। फिल्मी कहानियों की तासीर बदलती दिखाई दे रहीं हैं। फिल्मकार अब राजनैतिक दलों के अनुयायियों की तरह सामने आने लगे हैं। कश्मीर फ़ाइल ने एक नया रास्ता इन अवसरवादी फिल्मकारों के लिए खोल दिया है। निर्माता ने लगाए थे 20 करोड़ और कमाई उस पार्टी के माध्यम से हो गई 341 करोड़। सोचिए जरा कि क्यों ना बनाएं एजेंडे पर फि़ल्म।
एक फि़ल्म बनी राम सेतु ना सिर ना पैर , ना सच्चाई का कोई प्रमाणीकरण। एजेंडे से जोड़कर ऐसा ताना-बाना बुना गया कि लोग नतमस्तक हो गए। निर्माता ने चतुरता से इशारे-इशारे में खोज के एजेंडे में हिंदुओं की भावना को जोड़ दिया। दिखा दिया कि इस आधुनिक युग में भी प्रभु राम की खोज यात्रा में शर्ट- पेंट -लुंगी पहन कर हनुमान हमारी मदद करते हैं। इस इशारे पर किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं हुआ। शायद यह सोचकर नहीं हुआ कि इसे देखकर आधुनिक युग के मानव को हनुमान पर आस्था और बढ़ेगी। माना जायेगा कि इस युग में भी हनुमान आधुनिक रूप में आकर धर्म की रक्षा के लिए उपलब्ध हैं। अभी हाल फि़ल्म पठान के गीत पर भारी विवाद हुआ। कहा यह भगवा के प्रति गंदी भाषा व मिनी पोशाक के माध्यम से हिंदुओं की आस्था पर हमला है। सोशल मिडिया में चौतरफा हमला शुरू हो गया हीरो की लानत मनाई जाने लगी। किसी ने भी उस भद्दे ढंग से पोशाक पहनने वाली महिला पर आरोप नहीं थोपा। आलोचना तो उसकी होनी चाहिए,नहीं हुई। उसने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध पोशाक पहनी थी। बहिष्कार उसका होना चाहिए था।
दरअसल होना ये चाहिए कि फिल्मों को राजनीति से दूर रखा जाए तो बेहतर है। अगर यह पक्षपात का आरोपी बना दिया गया तो फि़ल्म उद्योग के लिए ठीक नहीं होगा। जनता को फि़ल्म को फि़ल्म की तरह देखने दीजिए। अपना नजरिया मत थोपिए। उन्हें अपने नजरिये से फि़ल्म को समझने दें। फिल्में सिर्फ फिल्में होती हैं। मनोरंजन का एक साधन मात्र। उसमें सब कुछ सच हो यह जरूरी नहीं। ध्यान रहे समाज को बदल सकती है तो सिर्फ साफ सुथरी जनकल्याण कारी राजनीति,वो होनी चाहिए।