Home मेरी बात लिटफेस्ट के बरक्स साहित्य महोत्सव

लिटफेस्ट के बरक्स साहित्य महोत्सव

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पिछले कुछ वर्षों से देश में लिट़्फेस्ट का प्रचलन बढ़ा है। लिट़्फेस्ट यानी लिटरेचर फेस्टिवल। इसके उच्चारण में भी अभिजात्य वर्ग को तकलीफ होती है इसलिए इसे वह लिट़्फेस्ट कहकर संबोधित करता है। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जो तथाकथित लिट़्फेस्ट हैं, वे अभिजात्य वर्ग का शगल बनते जा रहे हैं। ज्यादातर मामले में उनके आयोजकों का साहित्य से कोई खास लेना-देना नहीं होता। यही कारण है की लिट़्फेस्ट में साहित्य पर गंभीर बात नहीं होती। वहां बॉलीवुड के कुछ लोकप्रिय चेहरे भीड़ एकत्र करने के लिए बुलाए जाते हैं। कुछ अन्य क्षेत्रों के भी चर्चित चेहरे भीड़ जमा करने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। इनमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो फूहड़ विवाद पैदा करने के लिए कोई सनसनीखेज बयान देकर भी पतली गली से निकल लेते हैं। वहां आने वाले लेखक और लेखिकाओं में ज्यादातर खा-पीकर अघाए लोगों का वर्चस्व दिखाई देता है, जो केवल साहित्य-साहित्य खेलते हैं। इनके लिए कला केवल कला के लिए होती है जबकि कला जीवन के लिए हो तो उसकी उपादेयता और अधिक बढ़ जाती है। लिट़्फेस्ट में आने वाले अनेक लेखक साहित्य को जीते ही नहीं, उसे अपनी छवि चमकाने का साधन समझते हैं। वहाँ शामिल लेखिकाओं को देखो तो लगता है ये किसी फैशन परेड में शामिल होने आई हुई हैं। साहित्य की सादगी, व्यवहार की शालीनता उनमें नजर नहीं आती। लिट् फेस्ट में साधक किस्म के लेखक नहीं पहुंच पाते। उनको बुलाया ही नहीं जाता। लिट़्फेस्ट में शामिल होने वाले लोग अभिजात्य संस्कृति के हिस्से होते हैं। जो हवाई यात्रा से नीचे बात नहीं करते। जिन्हें पंचतारा होटल में रुकना अच्छा लगता है। जिन्हें हिंदी से नहीं, अँग्रेज़ी से प्यार होता है। ये लोग हिंदी साहित्य की भी चर्चा अँग्रेज़ी में करते हैं। इससे बड़ा मजाक कुछ नहीं दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन यह अच्छी बात है कि अब लिट़्फेस्ट के बरक्स विशुद्ध साहित्य विमर्श के लिए कुछ शहरों में साहित्य महोत्सव भी होने लगे हैं। कुछ महीने पहले ऐसा ही एक महोत्सव झांसी में हुआ था, जिसमें मैं भी शामिल हुआ था। इसी कड़ी में 3-4 और 5 फरवरी,2023 को बनारस में काशी वाराणसी विरासत फाउंडेशन की ओर से आयोजित काशी-वाराणसी साहित्य महोत्सव का पहली बार आयोजन किया गया। यह आयोजन किसी पंचतारा होटल में नहीं हुआ। वरन तीन महत्वपूर्ण केंद्रों में हुआ। पहले दिन काशी विश्वनाथ कारिडोर में बने भव्य सभा भवन में संगोष्ठी हुई। दूसरे दिन नागरी नाटक मंडली, कबीर चौरा में आयोजन हुआ और तीसरे दिन कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही में महोत्सव का समापन हुआ। साहित्य, संस्कृति और समाज पर केंद्रित इस महोत्सव में तीनों दिन ज्ञानोपयोगी अकादमिक सेमिनार हुए। जिसमें तेरह राज्यों से आए प्रतिभागी सम्मिलित हुए। आयोजन को अखबारों ने भी महत्व प्रदान किया। सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि आयोजन बनारस में हुआ इसलिए दक्षिण भारत से भी अनेक ऐसे लेखक इसमें शामिल हुए, जो वहां रहकर हिंदी में लेखन कर रहे हैं। दक्षिण से आने वाले लेखकों में एक मोह काशी दर्शन का भी था। लगभग सभी लेखकों ने बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए, गंगा स्नान किया और गंगा आरती में शामिल होने का सौभाग्य हासिल किया। काशी के साथ वाराणसी शब्द का प्रयोग महोत्सव के लिए क्यों किया गया,इसको स्पष्ट करते हुए एक प्रमुख आयोजक वरिष्ठ पत्रकार राममोहन पाठक ने बताया कि काशी राशि तो हमारी हजारों साल पुरानी नगरी है, मगर वाराणसी का नामकरण बहुत बाद में हुआ इसलिए हमने प्राचीन और अर्वाचीन को जोड़कर इसे काशी वाराणसी साहित्य महोत्सव नाम दिया। सांसद और लेखक आर के सिन्हा के प्रयासों से यह महोत्सव शुरू हुआ, जिसमें कमलेश दत्त कमल, जितेंद्रनाथ मिश्र नरेंद्र नाथ मिश्र सहित काशी के अनेक सृजन धर्मी दलितों के उद्धार जुड़े हुए थे। पहली बार आयोजन हुआ इसलिए व्यवस्था संबंधी कुछ कमियां जरूर नजर आई, मगर साहित्य महोत्सव का जो विराट लक्ष्य था, वह सार्थक हुआ। महोत्सव में केवल हिंदी साहित्य की चर्चा नहीं हुई, वरन विश्व साहित्य का संस्पर्श करते हुए भारतीय साहित्य में क्या लिखा जा रहा है, इसके बारे में विचार विमर्श हुआ। विभिन्न वक्ताओं ने अपने सार्थक विचार व्यक्त किए। भारतीय भाषाओं के अनेक मनीषियों का उल्लेख करते हुए मैंने और कुछ वक्ताओं ने इस बात को सिद्ध किया कि रचना किसी भी भाषा में हो रही हो, मगर उन सब का एक ही लक्ष्य रहा है, लोकमंगल की कामना और मनुष्य की सोई हुई करुणा को जगाना। अगर बनारस में कबीर रविदास जैसे लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से पुनर्जागरण कर रहे थे, तो उधर केरल में श्रीनारायण गुरु भी दलितों के उद्धार के लिए समाज को जगा रहे थे। जैसे महाराष्ट्र में संत रामदेव, तुकाराम, सन्त ज्ञानेश्वर, रामदास जैसे संत अपनी रचनाओं के माध्यम से मानव समाज को परिमार्जित कर रहे थे। काशी वाराणसी साहित्य महोत्सव विशेष रूप से भारतीयता के निकष पर खरा उतरा और सबसे बड़ी बात यह है लिट़्फेस्ट की तथाकथित अभिजात्य परंपरा के विरुद्ध महोत्सव एक रचनात्मक हस्तक्षेप लगा। साहित्य में जो सहित का भाव है, सबके हित की चिंता है, वह विभिन्न वक्ताओं के माध्यम से उभर कर सामने आया। मुझे लगता है, अगर भारतीय साहित्य को राष्ट्रीयता से जोड़कर रचने की जरूरत है तो इसी तरह के साहित्य महोत्सव होने चाहिए । लिट़्फेस्ट, जहां लेखन को साधना मानकर जीने वाले लेखक नजर नहीं आते, वरन वहाँ ऐसे सुविधाभोगी अघाए लेखकों की भरमार रहती है,जो सिगरेट और शराब के शौकीन होते हैं। जिन्हें लिव इन रिलेशनशिप अच्छी लगती है, जो समलैंगिकता की वकालत करते हैं, और वक्त आने पर अपने देश को भी गाली देने से परहेज नहीं करते। साहित्य की ऐसी अराजक पीढ़ी को ज़वाब देने के लिए काशी- वाराणसी साहित्य महोत्सव जैसे आयोजनों को प्रोत्साहित किया जाना अति आवश्यक है।