Home मेरी बात रामचरित मानस पर कीचड़!

रामचरित मानस पर कीचड़!

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हमारे समय का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति रामचरितमानस पर भी कुछ निकृष्ट लोग कीचड़ उछालने से बाज नही आते। मानस की कुछ पंक्तियों को लेकर अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कभी श्री राम की प्रशंसा में यह पंक्तियां कही थीं,
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि हो जाए सहज संभाव्य है।
सचमुच राम का पूरा चरित्र हम देखते हैं तो हमारे सामने एक महामानव की तस्वीर उभरती है। विश्व कवि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर एक ऐसे महान चरित्र को विश्व पटल पर रखा, जिसके रास्ते पर चलकर हम आदमी से इनसान बन सकते हैं। राम के चरित्र को केंद्रित करके अन्य ग्रंथों की रचना की गई है। ये रामायण वो रामायण। तरह-तरह की रामायण। लेकिन जब उनको पढ़ते हैं तो अनेक नकारात्मक बातें वहां नजर आती हैं। लेकिन जब तुलसीकृत मानस को हम देखते हैं तो राम का मर्यादा पुरुषोत्तम वाला जो उदात्त रूप हमारे सामने आता है,वह अभिभूत कर देने वाला है। उसी चरित्र को गांधीजी ने आत्मसात किया और जीवन भर वे राम का नाम जपते रहे। रघुपति राघव राजा राम। भले ही उन्होंने उदारता दिखाते हुए उन्होंने यह पंक्ति भी जोड़ी, ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान। लेकिन रघुपति राजा राघव राजा राम भी उन्होंने कहा। और जब उन्हें अंत में गोली लगी तो उनके मुंह से हे राम ही निकला। इस तरह गांधी राममय थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए महात्मा गांधी ने जो सपना देखा था, उस के केंद्र में रामराज्य था। वे चाहते थे कि देश जब आजाद हो तो रामराज्य आए। यह और बात है कि गांधी का स्वप्न केवल ‘यूटोपिया’ साबित हुआ। वह स्वप्न अब तक अधूरा है। हो सकता है, आने वाले समय में साकार भी हो। सच कहा जाए तो महात्मा गांधी ने तुलसीदास जी के रामचरितमानस को हृदय से आत्मसात किया तो जगह-जगह अपने भाषणों में उन्होंने इस ग्रंथ का उल्लेख किया और इसके सार तत्व रामराज्य को इस देश में स्थापित करने के बाद की तुलसीदास जी ने जिस तरह मानस के माध्यम से समतामूलक समाज की स्थापना का सपना संजोया उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गांधी जी ने भी एक समन्वयवादी समाज की रचना का आदर्श हम सबके सामने उपस्थित किया। अपने एक भाषण में गांधी जी ने कहा था कि आजकल जो हुकूमत हम पर शासन कर रही है वह केवल राक्षसी है। मैं उसे रावण-राज्य कहता हूँ। जो बुरे हैं उनकी संगति क्योंकि जाए? उनका साथ छोड़ा जाए ।उनसे असहयोग किया जाए। यह तो एक यज्ञ है। उसमें जब हम अपना बलिदान करेंगे, तभी शुद्ध होंगे और रावण राज्य को मिटाकर राम राज्य की स्थापना करेंगे। यह रामराज्य ही स्वराज्य है। स्वराज स्थापित किए बिना हम इस राक्षसी राज्य से छूट नहीं सकते। गांधी जी ने रामचरितमानस में रावण का जो चरित्र देखा, उस चरित्र को उन्होंने अंग्रेजों से जोड़ा और भारतीय मानस में भी यह बात स्थापित हुई कि अंग्रेज रावण की तरह ही अत्याचारी हैं इसलिए हमें इन का खात्मा करना ही चाहिए।
तुलसीकृत रामचरितमानस ने भारतीय मेधा को बहुत हद तक प्रभावित किया। जब भारत से गिरमिटिया मजदूर मॉरीशस, सूरीनाम, गयाना, फीजी और वेस्टइंडीज आदि देशों में ले जाए गए, तो उनके पास कुछ भी नहीं था। बस एक ताकत उनके साथ विद्यमान थी, और वह ताकत थी रामचरितमानस और हनुमान चालीसा। इन दो महान कृतियों के सहारे हमारे गिरमिटिया मजदूर विदेश गए। वहां अपने पसीने से उस मुल्कों को सींचा। बाद में उनकी पीढिय़ां वहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बनीं। रामचरितमानस ने उन्हें सतत संघर्ष की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता आंदोलन में भी रामचरितमानस की भूमिका को जब हम रेखांकित करते हैं ,तो उसके मूल में यही भाव होता है कि जिस तरह प्रभु श्रीराम ने जंगल में उत्पात मचाने वाले राक्षसों का और अंत में रावण का संहार किया, उसी तरह गुलाम भारत के नागरिकों को अपने भीतर राम का आह्वान करके अंग्रेज रूपी रावण का संहार करना है। मेरे पिताजी (श्री कृष्णप्रसाद उपाध्याय) बताया करते थे कि बनारस में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रामायण मंडलिया रामचरितमानस का सामूहिक पाठ करती थी और उसके परिपार्श्व में भावना यह भी रहती थी कि हमें इस देश को अंग्रेजों से मुक्त करना है। अपने भीतर रामत्व का संचार करना है। पिताजी उस समय किशोर थे और वे रामायण मंडली में शामिल होकर तुलसीदास द्वारा लिखित चौपाइयों और दोहों के मर्म को समझा करते थे, और अंग्रेजों के विरुद्ध भूमिगत हो कर आंदोलन भी करते थे। जैसे लेटर बॉक्स में बम डालकर धमाका करना, स्वतंत्रता से संबंधित साहित्य को फिरंगियों के कार्यालय तक गुप्त तरीके से पहुंचाना।
बचपन में मैंने पिताजी के साथ रामनगर की भव्य रामलीलाओं को अनेक बार देखा है। रामचरितमानस की पंक्तियां पढ़ते हुए मुगल काल में भी हमारे पूर्वज मुगल अत्याचारों को महसूस किया करते थे। तुलसीदास की पंक्तियां बार-बार मंत्र की तरह दोहराई जाती थी,
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
यह भी कि परहित सरिस धर्म नहिं भाई पर पीड़ा सम नहीं अधमाई। और पराधीन सपनेहुँ सुख नाही। रामराज्य कैसा हो, उसको तुलसीदास स्पष्ट करते हैं, दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहू नहिं व्यापा। यह भी कहा कि, सब नर करहिं परसपर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत सुति नीती। तुलसीदास जी ने समाज को तोडऩे नहीं, जोडऩे का काम किया था।