Home मेरी बात अधिग्रहण का गोरखधंधा

अधिग्रहण का गोरखधंधा

37
0

इसमें दो राय नहीं के उद्योग-धंधे लगने चाहिए। शहरों में जमीन बची नहीं इसलिए कारखाने लगाने के लिए गाँवों का रुख किया जाता है । और बहुत मान मनौवल और मुआवजा का प्रलोभन देने के बाद गाँव के सीधे-सादे लोग अपनी जमीन देने के लिए राजी भी हो जाते हैं। सिक्स लेन, फोर लेन सड़क के लिए भी गाँवों की जमीन अधिग्रहित की जाती है और प्रभावित ग्रामीणों को तगड़ा मुआवजा भी दिया जाता है ।यह सब अगर सहमति के साथ हो तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन जब जोर-जबरदस्ती के साथ, धोखाधड़ी करके ग्रामीणों की जमीन हड़पी जाती है,तब दुख होता है । तब हमें कहना पड़ता है यह तो लोकतंत्र नहीं है, राजशाही है । दुर्भाग्य की बात है कि पूरे देश में यह खेल हो रहा है। छत्तीसगढ़ में भी यदा-कदा ऐसी घटनाएं सुनाई देती हैं। जनसुनवाई के नाम पर फर्जीवाड़ा होता है। कुछ गांवों में जनसुनवाई के लिए उद्योगपति पहुंचते हैं, गांव के लोग रहते हैं और पर्याप्त मात्रा में पुलिस बल भी रहता है। ग्रामीणों में दहशत पैदा करके दबाव बनाने की कोशिश की जाती है। और गांव में ही दो- चार दलाल किस्म के लोग भी होते हैं, जो बड़ी चालाकी के साथ जनसुनवाई में इस तरह से दर्शाते हैं कि जमीन अधिग्रहण करने के लिए पूरे गांव की सहमति बन गई है ।जबकि ऐसा होता नहीं है ।गांव के लोग आज भी जागरूक हैं ।अपनी अस्मिता के प्रति सजग हैं। वे गांव के अस्तित्व को बचाना चाहते हैं इसीलिए कई बार खुलकर विरोध करते हैं । जैसा अभी हाल ही में सरगुजा जिले के बतौली क्षेत्र में हो रहा है। वहां चिरगा अल्यूमिनियम प्लांट लगाए जाने की कोशिश पिछले कुछ वर्षों से चल रही है। लेकिन वहां के ग्रामीण प्लांट का विरोध कर रहे हैं। वे लाठी-डंडों और तीर-धनुष से लैस होकर प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका साफ़ मानना है कि प्लांट लगने से गांव की सेहत पर असर होगा। दूसरी बात, कारखाने के लिए जिस स्थान का चयन किया गया है, वहां अनेक लोग पहले से ही रह रहे हैं । ग्रामीणों को समझाने के लिए प्रशासन भी पहुंच रहा है, लेकिन गांव के लोग मानने को राजी नहीं हैं।हजारों ग्रामीण वहां एकत्र हैं और खुलकर विरोध कर रहे हैं। यह तो अच्छी बात है कि प्रशासन के लोग वहां हथियारों के साथ नहीं पहुंचे, वरना उत्तेजना और अधिक बढ़ती और अप्रिय स्थिति भी बन सकती थी। मैं यहां प्रशासन की सराहना करूंगा कि कलेक्टर आदि बुलेट प्रूफ जैकेट और हेलमेट पहुंचकर आंदोलन स्थल तक पहुंचे और ग्रामीणों को समझाते रहे। यह बात मुझे ठीक लगी कि कलेक्टर ने कहा, हम कंपनी के प्रतिनिधि नहीं, शासन के प्रतिनिधि हैं। यहां हम किसी तरह के हथियार लेकर नहीं जाएंगे । कलेक्टर के कदम की जितनी सराहना की जाए, कम है। लेकिन भविष्य में भी इसी सोच पर कायम रहना चाहिए। ग्रामीणों की अपनी जमीन है। उनकी अपनी मर्जी है कि उसे दे या ना दें। ठीक है कि विकास कार्यों के लिए जमीन का अधिग्रहण होता है। सरकार कर भी सकती है लेकिन तभी कर सकती है जब बाजार रेट से चार गुना मुआवजा दिया जाए। और सबसे बड़ी बात ग्रामीणों की अपनी उनकी अपनी सहमति भी हो । उनको दूसरी जगह स्थापित किया जाए। उनको उतनी जमीन भी देनी चाहिए, जितनी उनसे ली जा रही है। न्याय तो यही कहता है। लेकिन कई बार ऐसा नहीं होता। गांव वालों को बहला-फुसलाकर जमीन हड़प ली जाती है। कहा जाता है कि आपको मुआवजा देंगे। आपके परिवार के किसी सदस्य को नौकरी भी दी जाएगी। लेकिन बाद में ऐसा कुछ नहीं होता। ढाई दशक पहले सूरजपुर के पास भैयाथान क्षेत्र में एसईसीएल वालों ने कोयला खदान के लिए ग्रामीणों से जमीन ली और उनसे वादा किया, उनको नौकरी भी दी जाएगी और मुआवजा भी दिया जाएगा। लेकिन देखते-देखते दो दशक साल बीत गए, उन्हें मुआवजा नहीं दिया गया और न ही नौकरी मिली। आज तक वहां के लोग दर-दर भटक रहे हैं। लेकिन प्रबंधन ने सिवा आश्वासन के और कुछ नहीं दिया। नवा रायपुर में भी अनेक ग्रामीण सही मुआवजे के लिए अब तक संघर्ष कर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि जनता को ठगने की कोशिश हर तरफ से होती है। लेकिन लोकतांत्रिक सरकारों का यह फर्ज है कि वे ऐसा न होने दें । जनता ही सरकार को चुनती है इसलिए सरकार का दायित्व है कि जन भावनाओं का सम्मान करे।और अगर जनता विरोध कर रही है तो उनकी जमीन को जबरन अधिग्रहित न किया जाए। और अगर बहुत जरूरी है भी तो उन्हें चार गुना मुआवजा दिया जाए और उनके आवास के विकल्प में पर्याप्त जमीन भी आवंटित की जाए । अल्मुनियम प्लांट के लिए जमीन कंपनी को तब तक नहीं दी जानी चाहिए, जब तक बतौली गाँव के लोग तैयार नहीं होते। उनके आक्रोश को प्रशासन झेले। ऐसा न हो कि उनका दमन करने के लिए बल का इस्तेमाल करने लग जाए।